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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
होते हैं ? यहाँ भी कृष्णलेश्या के समान चार उद्देशक कहने चाहिए । इस प्रकार (नीललेश्यादि पंचविध ) सम्यग्दृष्टि जीवों के भी भवसिद्धिक जीवों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहना । 'है भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
शतक - ४१ उद्देशक- ११३ से १४०
[१०७६] भगवन् ! मिथ्यादृष्टि-राशियुग्म कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? मिथ्यादृष्टि के अभिलाप से यहाँ भी अभवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहने चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
शतक - ४१ उद्देशक- १४१ से १६८
[१०७७] भगवन् ! कृष्णपाक्षिक-राशियुग्म कृतयुग्मराशिविशिष्ट नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! अभवसिद्धिक-उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहना । शतक - ४१ उद्देशक- १४१ से १९६
[१०७८] भगवन् ! शुक्लपाक्षिक-राशियुग्म- कृतयुग्मराशि- विशिष्ट नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! भवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक होते हैं । इस प्रकार यह (४१ वाँ) राशियुग्मशतक इन सबको मिला कर १९६ उद्देशकों का है यावत्-भगवन् ! शुक्ललेश्या वाले शुक्लपाक्षिक राशियुग्म कृतयुग्म-कल्योजराशिविशिष्ट वैमानिक यावत् यदि सक्रिय हैं तो क्या उस भव को ग्रहण करके सिद्ध हो जाते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त कर देते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
[१०७९] भगवान् गौतमस्वामी, श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण ( दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करते हैं, यों तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा करके वे उन्हें वन्दननमस्कार करते हैं । तत्पश्चात् इस प्रकार बोलते हैं- 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह अवितथ- सत्य है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भंते ! यह इच्छित है, भंते ! प्रतीच्छित - ( स्वीकृत) है, भंते ! यह इच्छित प्रतीच्छित है, भगवन् ! यह अर्थ सत्य है, जैसा आप कहते हैं, क्योंकि अरिहन्त भगवन्त अपूर्व वचन वाले होते हैं, यो कह कर वे श्रमण भगवान् महावीर को पुनः वन्दन - नमस्कार करते हैं । तत्पश्चात् तप और संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं ।
शतक - ४१ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
शेष - कथन
[१०८०] सम्पूर्ण भगवती सूत्र के कुल १३८ शतक हैं और १९२५ उद्देशक हैं । प्रवर (सर्वश्रेष्ठ ) ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंगसूत्र में ८४ लाख पद कहे हैं तथा विधि - निषेधरूप भाव तो अनन्त कहे हैं ।
[१०८१] गुणों से विशाल संघरूपी समुद्र सदैव विजयी होता है, जो ज्ञानरूपी विमल और विपुल जल से परिपूर्ण है, जिसकी तप, नियम और विनयरूपी वेला है और जो सैकड़ों हेतुओं-रूप प्रबल वेग वाला है ।