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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
| शतक-३६ शतकशतक-२ से १२ [१०६०] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् जानना । कृष्णलेश्यी जीवों का भी शतक ग्यारह उद्देशकयुक्त जानना चाहिए । विशेष यह है कि इनकी लेश्या और कायस्थिति तथा भवस्थिति कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान होती है । इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का ग्यारह उद्देशक-सहित शतक है ।
भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् भवसिद्धिक महायुग्मद्वीन्द्रिय जीवों के चार शतक जानने चाहिए । विशेष यह है कि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए ? यह बात शक्य नहीं है । शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए । ये चार औधिकशतक हुए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' । जिस प्रकार भवसिद्धिक के चार शतक कहे, उसी प्रकार अभवसिद्धिक के भी चार शतक कहने चाहिए । विशेष यह है कि इन सबमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होते हैं । शेष सब पूर्ववत् ही है । इस प्रकार ये बारह द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक होते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' । शतक-३६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(शतक-३७) [१०६१] भगवन् ! कृतयुग्मराशि वाले त्रीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! द्वीन्द्रियशतक के समान त्रीन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक कहना विशेष यह है कि इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तीन गाऊ की है तथा स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट उनपचास अहोरात्रि की है । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
(शतक-३८) [१०६२] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों के बारह शतक कहने चाहिए । विशेष यह है कि इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट चार गा की है तथा स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट छह महीने की है । शेष कथन द्वीन्द्रिय जीवों के शतक समान | 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
शतक-३९) [१०६३] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! द्वीन्द्रियशतक के समान असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक कहने चाहिए । विशेष यह है कि इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की
और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है तथा कायस्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व की है एवं भवस्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है । शेष पूर्ववत् द्वीन्द्रिय जीवों के समान है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
शतक-३७ से ३९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण