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भगवती-३५/२ से १२/१०५७
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कापोतलेश्यीभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के भी ग्यारह उद्देशकों सहित यह शतक चतुर्थ शतक समान जानना । इस प्रकार ये चार शतक भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव के हैं । इन चारों शतकों में क्या सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । इतना विशेष जानना | भवसिद्धिक-सम्बन्धी चार शतक अनुसार अभवसिद्धिकएकेन्द्रिय के लेश्या-सहित चार शतक कहने चाहिए । भगवन् ! सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं ? पूर्ववत् । यह अर्थ समर्थ नहीं है । (इतना विशेष जानना ।) इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रियमहायुग्मशतक हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।। शतक-३५ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(शतक-३६) .: शतकशतक-१ :
उद्देशक-१ [१०५८] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात व्युत्क्रान्तिपद अनुसार जानना । परिमाण-एक समय में सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । इनका अपहार उत्पलोद्देशक अनुसार जानना। इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है । एकेन्द्रियमहायुग्मराशि के प्रथम उद्देशक के समान समझना । विशेष यह है कि इनमें तीन लेश्याएँ होती हैं । देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी, होते है । ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं । ये वचनयोगी और काययोगी होते हैं ।
भगवन् ! वे कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यातकाल । उनकी स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है । वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते हैं । तीन समुद्घात होते हैं । शेष पूर्ववत् यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों के सोलह महायुग्मों में कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
| शतक-३६/१ उद्देशक-२ से ११ | [१०५९] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक अनुसार जानना । वहाँ दस बातों का जो अन्तर बताया है, वही अन्तर समझना । ग्यारहवीं विशेषता यह है कि ये सिर्फ काययोगी होते हैं । शेष सब बातें एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथम उद्देशक के समान जानना | 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है०' ।
एकेन्द्रियमहायुग्म-सम्बन्धी म्यारह उद्देशकों के समान यहाँ भी कहना चाहिए । किन्तु यहाँ चौथे, (छठे) आठवें और दसवें उद्देशकों में सम्यक्त्व और ज्ञान का कथं नहीं होता । एकेन्द्रिय के समान प्रथम, तृतीय और पंचम, उद्देशकों के एकसरीखे पाठ हैं, शेष आठ उद्देशक एक समान हैं ।