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भगवती-४०/१/-/१०६४
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(शतक-४०)
-: शतकशतक-१ :[१०६४] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि रूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात चारों गतियों से होता है । ये संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों से आते हैं । यावत् अनुत्तरविमान तक किसी भी गति से आने का निषेध नहीं है । इनका परिमाण, अपहार और अवगाहना असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के समान है । ये जीव वेदनीयकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक अथवा अबन्धक होते हैं । वेदनीयकर्म के तो बन्धक ही होते हैं । मोहनीयकर्म के वेदक या अवेदक होते हैं । शेष सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं । वे सातावेदक अथवा असातावेदक होते हैं । मोहनीयकर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं . शेष सात कर्मप्रकृतियों के उदयी होते हैं । नाम और गोत्र कर्म के वे उदीरक होते हैं । शेष छह कर्मप्रकृतियों के उदीरक या अनुदीरक होते हैं । वे कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं । वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं । ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं । वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि चार, उच्छ्वास-निःश्वास
और आहारक का कथन एकेन्द्रिय जीवों के समान है । वे विरत, अविरत या विरताविरत होते हैं । वे सक्रिय होते हैं ।
भगवन् ! वे जीव सप्तविध, अष्टविध, षड्विध या एकविधकर्मबन्धक होते हैं ? गौतम ! वे सप्तविधकर्मबन्धक भी होते हैं, यावत् एकविधकर्मबन्धक भी होते हैं । भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं अथवा वे नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? गौतम ! आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं ।।
इसी प्रकार सर्वत्र प्रश्नोत्तर की योजना करनी चाहिए । (यथा-) वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं | स्त्रीवेद, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक या अवेदक होते हैं । स्त्रीवेदबन्धक, पुरुषवेद-बन्धक, नपुंसकवेद-बन्धक या अबन्धक होते हैं । संज्ञी होते हैं । संस्थितिकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम-शतपृथक्त्व होता है । आहार पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का होता है । स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । प्रथम के छह समुद्घात पाये जाते हैं । ये मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं । उद्वर्त्तना का कथन उपपात के समान है । किसी भी विषय में निषेध अनुत्तरविमान तक नहीं है ।।
भगवन् ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ, पहले उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं । इसी प्रकार सोलह युग्मों में अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं । इनका परिमाण द्वीन्द्रिय जीवों के समान है । शेष पूर्ववत् । 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है'।
[१०६५] भगवन् ! प्रथम समय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इनका उपपात, परिमाण, अपहार प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना । अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदयी और उदीरक द्वीन्द्रिय जीवों के समान समझना । कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं । शेष प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रिय के समान