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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गभिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक् उस निर्यामक की यह बात सुनकर और समझकर हृष्टतुष्ट हुए । फिर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु की सहायता से वहाँ पहुँचे जहाँ कालिक-द्वीप था । वहाँ पहुँच कर लंगर डाला । छोटी नौकाओं द्वारा कालिक-द्वीप में उतरे । उस कालिकद्वीप में उन्होंने बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की, हीरे की खाने और बहुत से अश्व देखे । वे अश्व कैसे थे ? वे उत्तम जाति के थे । उनका वर्णन जातिमान् अश्वों के वर्णन के समान समझना । वे अश्व नीले वर्ण वाली रेणु के समान वर्ण वाले और श्रोणिसूत्रक वर्ण वाले थे । उन अश्वों ने उन वणिकों को देखा । उनकी गंध सूंघकर वे अश्व भयभीत हुए, त्रास को प्राप्त हुए, उद्विग्न हुए, उनके मन में उद्वेग उत्पन्न हुआ, अतएव वे कई योजन दूर भाग गये । वहाँ उन्हें बहुत-से गोचर प्राप्त हुए । खूब घास और पानी मिलने से वे निर्भय एवं निरुद्वेग होकर सुखपूर्वक वहाँ विचरने लगे ।
तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों ने आपस में इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है ? यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने हैं । अतएव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है ।' इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से स्वर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया। भर कर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आये । आकर जहाज का लंगर डाला । गाड़ी-गाड़े तैयार किये । लाये हुए उस हिरण्य-स्वर्ण, यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया । फिर गाड़ी-गाड़े जोते । हस्तिशीर्ष नगर पहुँचे । हस्तिशीर्ष नगर के बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया । गाड़ी-गाड़े खोले । फिर बहुमूल्य उपहार लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया । कनककेतु राजा के पास आये । वह उपहार राजा के समक्ष उपस्थित किया । राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य उपहार को स्वीकार किया ।
[१८५] फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार-बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कही कोई आश्चर्यजनक-अद्भुत-अनोखी वस्तु देखी है ?' तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष नगर के निवासी हैं; इत्यादि पूर्ववत् यावत् हम कालिकद्वीप के समीप गए । उस द्वीप में बहुत-सी चाँदी की खानें यावत् बहुत-से अश्व हैं । वे अश्व कैसे हैं ? नील वर्ण वाली रेणु के समान और श्रोत्रिसूत्रक के समान श्याम वर्ण वाले हैं । यावत वे अश्व हमारी गंध के कई योजन दूर चले गए । अतएव हे स्वामिन् ! हमने कालिकद्वीप में उन अश्वों को आश्चर्यभूत देखा है ।' कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिकों से यह अर्थ सुन कर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से उन अश्वों को यहाँ ले आओ ।' तब सांयात्रिक वणिकों ने कनककेतु राजा से-'स्वामिन् ! बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उन्होंने राजा का वचन आज्ञा के रूप में विनयपूर्वक स्वीकार किया ।
तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! तुम सांयात्रिक वणिकों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से मेरे लिए अश्व ले आओ ।'