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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१८३
सागरोपम की स्थिति है । गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न किया- 'भगवन् ! वह द्रुपद देव वहाँ से चय कर कहाँ जन्म लेगा ? तब भगवान् ने उत्तर दिया- ' ब्रह्मलोक स्वर्ग से वहाँ की आयु, स्थिति एवं भव का क्षय होने पर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर यावत् कर्मों का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सोलहवें ज्ञात - अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है । ऐसा मैं कहता हुं ।
अध्ययन - १६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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अध्ययन- १७ अश्वज्ञान
[१८४] 'भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान् महावीर ने सोलहवें ज्ञात - अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?” उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था । ( वर्णन) उस नगर में कनककेतु नामक राजा था । (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत-से सांयात्रिक नौकावणिक् रहते थे । वे धनाढ्य थे, यावत् बहुत लोगों से भी पराभव न पाने वाले थे । एक बार किसी समय वे सांयात्रिक नौकावणिक् आपस में मिले । उन्होंने अर्हन की भािँ समुद्रयात्रा पर जाने का विचार किया, वे लवणसमुद्र में कई सैकड़ों योजनों तक अवगाहन भी कर गये ।
उस समय उन वणिकों को माकन्दीपुत्रों के समान सैकड़ों उत्पात हुए, यावत् समुद्री तूफान भी आरम्भ हो गया । उस समय वह नौका उस तूफानी वायु से बार-बार कांपने लगी, चलायमान होने लगी, क्षुब्ध होने लगी और उसी जगह चक्कर खाने लगी । उस समय नौका के निर्यामक की बुद्धि मारी गई, श्रुति भी नष्ट हो गई और संज्ञा भी गायब हो गई । वह दिशाविमूढ़ हो गया । उसे यह भी ज्ञान न रहा कि पोतवाहन कौन-से प्रदेश में है या कौनसी दिशा अथवा विदिशा में चल रहा है ? उसके मन के संकल्प भंग हो गये । यावत् वह चिन्ता में लीन हो गया । उस समय बहुत से कुक्षिधार, कर्णधार, गम्भिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक निर्यामक के पास आये । आकर उससे बोले - 'देवानुप्रिय ! नष्ट मन के संकल्प वाले होकर एवं मुख हथेली पर रखकर चिन्ता क्यों कर रहे हो ? तब उस निर्यामक ने उन बहुत-से कुक्षिधारकों, यावत् नौकावणिकों से कहा - 'देवानुप्रियो ! मेरी मति मारी गई है, यावत् पोतवाहन किस देश, दिशा या विदिशा में जा रहा है, यह भी मुझे नहीं जान पड़ता । अतएव मैं मनोरथ होकर चिन्ता कर रहा हूँ ।' तब वे कर्णधार उस निर्यामक से यह बात सुनकर और समझ कर भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए, घबरा गये । उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया और हाथ जोड़कर बहुत-से इन्द्र, स्कंद आदि देवों को “मल्लि अध्ययन" अनुसार मस्तक पर अंजलि करके मनौती मनाने लगे ।
थोड़ी देर बाद वह निर्यामक लब्धमति, लब्धश्रुति, लब्धसंज्ञ और अदिङ्मूढ हो गया । शास्त्रज्ञान जाग गया, होश आ गया और दिशा का ज्ञान भी हो गया । तब उस निर्यामक ने उन बहुसंख्यक कुक्षिधारों यावत् नौकावणिकों से कहा - 'देवानुप्रियो ! मुझे बुद्धि प्राप्त हो गई है, यावत् मेरी दिशा- मूढ़ता नष्ट हो गई है । देवानुप्रियो ! हम लोग कालिक-द्वीप के समीप आ पहुँचे हैं । वह कालिक - द्वीप दिखाई दे रहा है ।' उस समय वे कुक्षिधार, कर्णधार,