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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१३/१४७
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से बाहर निकला । जहाँ राजमार्ग था, वहां आया । उत्कृष्ट दर्दुरगति से चलता हुआ मेरे पास आने के लिए कृत संकल्प हुआ । इधर भंभसार अपरमाना श्रेणिक राजा ने स्नान किया एवं कौतुक - मंगल- प्रायश्चित्त किया । यावत् वह सब अलंकारों से विभूशित हुआ और श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुआ । कोरंट वृक्ष के फूलों की मालावाले छत्र से, श्वेत चामरों से शोभित होता हुआ, अश्व, हाथी, स्थ और बड़े-बड़े सुभटों के समूह रूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर मेरे चरणों की वन्दना करने के लिए शीघ्रतापूर्वक आ रहा था । तब वह मेंढ़क श्रेणिक राजा के एक अश्वकिशोर के बाएँ पैक से कुचल गया । उसको आँतें बाहर निकल गई । घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढक शक्तिहीन, बलहीन, वीर्य हीन और पुरुषकार - पराक्रम से हीन हो गया 'अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है ।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया । वहाँ दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार बोला- 'अरहंत यावत् निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थकर भगवन्तों को नमस्कार हो । पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात, यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था; तो अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कह कर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया । तत्पश्चात् वह मेंढक मृत्यु के समय काल करके, यावत् सौधर्म कल्प में, दर्दुरावतंसक नामक विमान में, उपपातसभा में, दर्दुरदेव के रूप में उत्पन्न हुआ । हे गौतम! दर्दुरदेव ने इस प्रकार वह दिव्य देवर्धि लब्ध की है, प्राप्त की है और पूर्णरूपेण प्राप्त की है ।
भगवन् दर्दर देव की उस देवलोक में स्थिति कही गई है । तत्पश्चात् वह दर्दुर देव
कितनी स्थिति है ? गौतम ! चार पल्योपम की आयु के क्षय से, भव के क्षय से और स्थिति क्षय से तुरंत वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, यावत् अन्त करेगा । इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने तेरहवें ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा हैं । जैसा मैंने सुना वैसा मै कहता हूँ ।
अध्ययन - १३ - का मुनि दीपरत्मसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन- १४- 'तेतलिपुत्र '
[१४८] 'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने तेरहवें ज्ञात - अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञात - अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा हैं ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था । उस से बाहर ईशान - दिशा में प्रमदवन उद्यान था । उस नगर में कनकरथ राजा था । कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी । कनकरथ राजा का अमात्य तेतलिपुत्र था, जो साम, दाम, भेद और दंड-इन चारों नीति? का प्रयोग करने में निष्णात था । तेतलिपुर नगर में मूषिकारदारक कलाद था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । उस कलाद मूषिकारदारक की पुत्री और भद्रा की आत्मजा पोट्टिला थी । वह रूप, यौवन और लावण्य