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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
हुआ । उसका ज्ञान परिणत हुआ-वह समझदार होगया और यौवनावस्था को प्राप्त हुआ । तब नन्दा पुष्करिणी में रमण करता विचरने लगा । नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भर कर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे- 'देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् मनोहर पुष्करिणी है, जिसके पूर्व के वनखंड में अनेक सैकड़ों खंभों की बनी चित्रसभा है । यावत् नन्द मणिकार का जन्म और जीवन सफल है ।' तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों केपास से यह बात सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढ़क को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'जान पड़ता हैं कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सुने हैं ।' इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया । उसे अपना पूर्व जन्म अच्छी तरह याद हो गया ।
तत्पश्चात् उस मेंढ़क को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-मैं इसी तरह राजगृहनगर में नंद नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का आगमन हुआ । तब मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म अंगीकार किया था । कुछ समय बाद साधुओं के दर्शन न होने आदि से मैं किसी समय मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया । तत्पश्चात् एक बार किसी समय ग्रीष्मकाल के अवसर पर मैं तेले की तपस्या करके विचर रहा था । तब मुझे पुष्करिणी खुदवाने का विचार हुआ, श्रेणिक राजा से आज्ञा ली, नन्दी पुष्करिणी खुदवाई, वनखण्ड लगवाये, चार सभाएँ बनवाई, यावत् पुष्करिणी के प्रति आसक्ति होने के कारण मैं नन्दा पुष्करिणी में मेंढ़क पर्याय में उत्पन्हुआ । अतएव मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, अतः मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट हुआ, भ्रष्ट हुआ और एकदम भ्रष्ट हो गया । तो अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि पहले अंगीकार किये पांच, अणुव्रतों को और सात शिक्षाव्रतों को मैं स्वयं ही पुनः अंगीकार करके रहूँ । नन्द मणिकार के जीव उस मेंढ़क ने इस प्रकार विचार करके पहले अंगीकार किये हुए पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को पुनः अंगीकार किया । इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-'आज से जीवन-पर्यन्त मुझे बेले-बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता है । पारणा में भी नन्दा पुष्करिणी के पर्यन्त भागों में, प्रासुक हुए स्नान के जल से और मनुष्यों के उन्मर्दन आदि द्वारा उतारे मैल से अपनी आजीविका चलाना कल्पता है ।' अभिग्रह धारण करके निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा ।
हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील चैत्य में आया । वन्दन करने के लिए परिषद् निकली । उस समय नन्दा पुष्करिणी में बहुत से जन नहाते, पानी रीते और पानी ले जाते हुआ आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-श्रमण भगवान् महावीर यहीं गुणशील उद्यान में समवसृत हुए हैं । सो हे देवानुप्रिय ! हम चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करें, यावत् उपासना करें । यह हमारे लिए इहभव में और परभव में हित के लिए एवं सुख के लिए होगा, क्षमा और निःश्रेयस के लिए तथा अनुगामीपन के लिए होगा । बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर और हृदय में धारण करके उस मेंढ़क को ऐसा विचार, चिन्तन, अभिलाषा एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं, तो मैं जाऊँ और भगवान् की वन्दना करूँ । ऐसा विचार करके वह धीरे-धीरे नन्दा पुष्करिणी