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________________ १५० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है । सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाऔ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो-इतना धन लेकर पहुंचा दो। पहंचा करके शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो ।' तत्पश्चात् वैश्रमण देव, शक्र देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हआ। हाथ जोड़ कर उसने यावत मस्तक पर अंजलि घुमाकर आज्ञा स्वीकार की । स्वीकार करके मुंभकदेवों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जाओ और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुँचा दो । संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटाओ ।' तत्पश्चात् वे मुंभक देव, वैश्रमण देव की आज्ञा सुनकर उत्तरपूर्व दिशा में गये । जाकर उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की । देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुँचे । कुम्भ राजा के भवन में आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुँचा दो । पहुँचा कर वे मुंभक देव, वैश्रमण देव के पास आये और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई । वह वैश्रमण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज थे, वहाँ आया । आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी । मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश समय तक बहुत-से सनाथों, अनाथों पांथिको-पथिकों-करोटिक, कार्पटिक पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना आरम्भ किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात् विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देशे देश अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएँ बनवाईं । उन भोजनशालाओं मे बहुत-से-मनुष्य, जिन्हें धन, भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपुल अशन,पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे । जो लोग जैसे-जैसे आते-जाते थे जैसे कि-पांथिक, करोटिक कार्पटिक पाखण्डी अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसान पर बिठला कर विपुल अशन, पान, स्वाद्य और स्वाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था । वे मनुष्य वहाँ भोजन आदि देते रहते थे । तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में श्रृंगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित तथा इच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बहुत-से श्रमणों आदि को यावत् परोसा जाता है । [९९] वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्दों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को.यथेष्ट दान दिया जाता है ।। [१००] उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर 'मैं दीक्षा ग्रहण करू' ऐसा मन में निश्चय किया । [१०१] उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवें देवलोक में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से सात-सात अनीकों
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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