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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/१०१ १५१ से, सात-सात अनीकाधिपतियों से, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लौकान्तिक देवों से युक्त-परिवृत होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए नृत्यों-गीतों के शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे । उन लौकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं [१०] सारस्वत वह्नि आदित्य वरुण गर्दतोय तुषित अब्याबाध आग्नेय रिष्ट ।। [१०३] तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुएइत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की इच्छा करनेवाले तीर्थकरों को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएँ और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें; ऐसा लौकान्तिक देवोने विचार किया । उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की । समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, मुंभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत् थे, वहाँ आकर के-अधर में स्थित रह कर धुंघरुओं के शब्द सहित यावत् श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, यावत् वाणी से बोले- 'हे लोक के नाथ ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ । धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो । वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निःश्रेयसकारी होगा ।' इस प्रकार कह कर दूसरी बार और तीसरी बार भी कहा । अरहन्त मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में लौट गए । तत्पश्चात् लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित मल्ली अरहन्त माता-पिता के पास आये । आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहा-“हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मुंडित होकर गृहत्याग करके अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरी इच्छा है । तब माता-पिता ने कहा-'हे देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध-विलम्ब मत करो।' तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक हजार आठ सुवर्णकलश यावत् एक हजार आठ मिट्टी के कलश लाओ । उसके अतिरिक्त महान् अर्थवाली यावत् तीर्थंकर के अभिषेक की सब सामग्री उपस्थित करो ।'-यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया, अर्थात् अभिषेक की समस्त सामग्री तैयार कर दी । उस काल और उस समय चमर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के सभी इन्द्र आ पहुँचे । तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाकर इस प्रकार कहा'शीघ्र ही एक हजार आठ स्वर्णकलश आदि यावत् दूसरी अभिषेक के योग्य सामग्री उपस्थित कहो ।' यह सुन कर आभियोगिक देवों ने भी सब सामग्री उपस्थित की । वे देवों के कलश उन्हीं मनुष्यों के कलशों में समा गये । तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र और कुम्भ राजा ने मल्ली अरहन्त को सिंहासन के ऊपर पूर्वाभिमुख आसीन किया । फिर सुवर्ण आदि के एक हजार आठ पूर्वोक्त कलशों से यावत् उनका अभिषेक किया । तत्पश्चात् जब मल्ली भगवान् का अभिषोक हो रहा था, उस समय कोई-कोई देव मिथिला नगरी के भीतर और बाहर यावत् सब दिशाओं-विदिशाओं में दौड़ने लगे-इधर-उधर फिरने लगे । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने दूसरी बार उत्तर दिशा में सिंहासन रखवाया यावत् भगवान् मल्ली को सर्व अलंकारों से विभूषित किया । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा-शीघ्र ही मनोरमा नाम की शिबिका लाओ ।' कौटुम्बिक पुरुष मनोरमा शिविका ले आए । तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों के बुलाया । बुलाकर उनसे कहा
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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