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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/९५ मार्गणा और गवेषणा - विशेष विचार करने से जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं की ऐसा जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ कि जिससे वे संज्ञी अवस्था के अपने पूर्वभव को उन्होंने सम्यक् प्रकार कसे जान लिया । तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को जातिस्रण ज्ञान उत्पन्न हो गया जानकर गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिये । तब जितशत्रु वगैरह छहों राजा मल्ली अरिहंत के पास आये । उस समय महाबल आदि सातों बालमित्रों का परस्पर मिलन हुआ । तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने जितशत्रु वगैरह छहों राजाओं से कहा- हे देवानुप्रियो ! निश्चित्त रूप से मैं संसार के भय से उद्विग्न हुई हूँ, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ | तो आप क्या करेंगे ? कैसे रहेंगे ? आपके हृदय का सामर्थ्य कैसा है ? १४९ तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिये ! अगर आप संसार के भय से उद्विग्र होकर यावत् दीक्षा लेती हो, तो ! हमारे लिए दूसरा क्या आलंबन, आधार या प्रतिबन्ध है ? जैसे आप इस भव से पूर्व के तीसरे भव में, बहुत कार्यों में हमारे लिए मेढ़ीभूत, प्रमाणभूत और धर्म को धुरा के रूप में थी, उसी प्रकार अब भी होओ। हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् जन्म-मरण से भयभीत हैं; अतएव देवानुप्रिया के साथ मुण्डित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हैं ।' तत्पश्चात् अरिहंत मल्लीने उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं से कहा- 'अगर तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हो, तो जाओ अपने-अपने राज्य में और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर प्रतिष्ठित करके हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ़ होओ। आरूढ़ होकर मेरे समीप आओ ।' उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं ने मल्ली अरिहंत के इस अर्थ को अंगीकार किया । तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत उन जितशत्रु वगैरह को साथ लेकर जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आकर उन्हें कुम्भ राजा के चरणों में नमस्कार कराया । तब कुम्भ राजा ने उस जितशत्रु वगैरह का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया । सत्कार - सम्मान करके उन्हें विदा किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा विदा किए हुए जितशत्रु आदि राजा जहाँ अपने-अपने राज्य थे, नगर थे, वहां अपने-अपने राज्यों का उपभोग करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् अरिहन्त मल्ली ने अपने मन में ऐसी धारणा कि कि 'एक वर्ष के अन्त में मैं दीक्षा ग्रहण करूंगी ।' [९६] उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ । तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलायमान हुआ देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया । तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हुआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहन्त ने एक वर्ष के पश्चात् 'दीक्षा लूंगी' ऐसा विचार किया है । अतीत काल, वर्त्तमान काल और भविष्यत् काल के शक्र देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत आचार है कि- तीर्थकर भगवंत जब दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा देनी चाहिए । वह इस प्रकार है [१७] '३०० करोड़, ८८ करोड़ और ८० लाख द्रव्य इन्द्र अरिहन्तों को देते है ।' [१८] शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया । विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा- 'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्ठासी करोड़ और
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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