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________________ १३८ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद पोतवहन को दो उंगलियों पर उठा लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊँचाई तक आकाश में उछाल कर इसे जल के अन्दर डुबा देता हूँ, जिससे तू आर्त्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जायगा ।' तब अर्हक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! मैं अर्हक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ । निश्चय ही मुझे कोई देव, दानब निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता । तुम्हारी जो श्रद्धा हो सो करो ।' इस प्रकार कह कर अर्हन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैत्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्म ध्यान में लीन बना रहा । तत्पश्चात् उस दिव्य पिशाचरूप ने अर्हन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा । उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया । सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊँचाई तक ऊपर उठाकर कहा- 'अरे अर्हन्त्रक ! मौत की इच्छा करनेवाले ! तुझे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है यावत् फिर भी वो धर्मध्यान में ही लीन बना रहा । वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निग्रन्थ- प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुआ, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ । फिर उसने उस पोतवहन को धीरेधीरे उतार कर जल के ऊपर रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया - उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर घुंघुरुओं की छम्छम् की ध्वनि से युक्त पंचवर्ण के उत्तम वस्त्र धारण करके अर्हन्त्रक श्रमणोपासक से कहा 'हे अर्हनक ! तुम धन्य हो । देवानुप्रिय ! तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है कि जिसको निर्ग्रन्थप्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति लब्ध हुई हैं, प्राप्त हुई है और आचरण में लाने का कारण सम्यक् प्रकार से सन्मुख आई है ।' हे देवानुप्रिय ! देवों के इन्द्र और देवों के राजा शक्र ने सौधर्म कल्प मैं, सौधर्मावतंसक नामक विमान में और सुधर्मासभा में, बहुतसे देवों के मध्य में स्थित होकर महान् शब्दों से इस प्रकार कहा था - ' निस्संदेह जम्बूद्वीप नामक द्वीप मं, भरत क्षेत्र में, चम्पानगरी में अर्हन्त्रक नामक श्रमणोपासक जीव- अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता हैं । उसे निश्चय ही कोई देव या दानव निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान करने में यावत् सम्यक्त्व से च्युत करने में समर्थ नहीं हैं । तब हे देवानुप्रिय ! देवेन्द्र शक्र की इस बात कर मुझे श्रद्धा नहीं हुई । यह बात रुची नहीं । तब मुझे इस प्रकार का विचार, उत्पन्न हुआ कि - 'मैं जाऊँ और अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होऊँ । उनका परित्याग करता है अथवा नहीं ? मैंने इस प्रकार का विचार किया । विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर हे देवानुप्रिय ! मैंने जाना । जानकर ईशानकोण में जाकर उत्तर वैक्रियशरीर बनाने के लिए वैक्रियसमुद्घानत किया । तत्पश्चात् उत्कृष्ट यावत् शीघ्रता वाली देवगति से जहाँ लवणसमुद्र था और जहाँ देवानुप्रिय थे, वहाँ मैं आया । उपसर्ग किया । मगर देवानुप्रिय भयभीत न हुए, त्रास को प्राप्त न हुए । अतः देवेन्द्र देवराज ने जो कहा था, वह अर्थ सत्य सिद्ध हुआ । मैंने देखा कि देवानुप्रिय को ऋद्धि-गुण रूप समृद्धि, धुति-तेजस्विता, यश, शारीरिक वह यावत् पुरुषकार, पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ और उसका आपने भली-भाँति सेवन किया है।
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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