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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/८७
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तो हे देवानुप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ । अब फिर कभी मैं ऐसा नहीं करूंगा ।' इस प्रकार कहकर दोनों हाथ जोड़कर देव अर्हन्नक के पावों में गिर यगा और इस घटना के लिए बारबार विनयपूर्वक क्षमायाचना करके अर्हन्नक को दो कुंडल - युगल भेंट किये । भेंट करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा में लौट गया ।
[८८] तत्पश्चात् अर्हन्त्रक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी तदनन्तकर वे अर्हन्नक आदि यावत् नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहां गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आये । आकर उस पोत को रोका । गाड़ी गाड़े तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाड़ी-गाड़ों में भरा । जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आकर मिथिला नगरी के बाहर उत्तम उद्यान में गाड़ी गाड़े छोड़कर मिथिला नगरी में जाने के लिए वह महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली, महान् जनों के योग्य, विपुल और राजा के योग्य भेंट और कुंडलों की जोड़ी ली । लेकर मिथिला नगरी में प्रवेश किया । जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आये । आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तर पर अंजलि करके वह महान् अर्थवाली भेंट और वह दिव्य कुंडलयुगल राजा के समीप ले गये, यावत् राजा के सामने रख दिया । तत्पश्चात् कुंभ राजा ने उन नौकावणिकों की वह बहुमूल्य भेंट यावत् अंगीकार की । अंगीकार करे विदेल की उत्तम राजकुमारी मल्ली को बुलाया । बुलाकर वह दिव्य कुंडलयुगल विदेह की श्रेष्ठ राजकुमारी मल्ली को पहनाया और उसे विदा कर दिया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने उन अर्हन्नक आदि नौकावणिकों का विपुल अशन आदि से तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकार से सत्कार किया । उनका शुल्क माफ कर दिया । राजमार्ग पर उनको उतारा आवास दिया और फिर उन्हें विदा किया।
तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक वणिक्, जहाँ राजमार्ग पर आवास था, वहाँ आये । आकर भाण्ड का व्यापार करने लगे । उन्होनें प्रतिभांड खरीद कर उससे गाड़ी - गाड़े भरे । जहाँ गम्भीर पोतपट्टन था, वहाँ आये । आकर के पोतवहन सजाया- तैयार किया । तैयार करके उसमें सब भांड भरा । भरकर दक्षिण दिशा के अनुकूल वायु के कारण जहां चम्पा नगरी का पोतस्थान था, वहाँ आये । पोत को रोककर गाड़ी गाड़े ठीक करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भांड उनमें भरा । भरकर यावत् बहुमूल्य भेंट और दिव्य कुण्डलयुगर ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अंगराज चन्द्रच्छाय था, वहाँ आये । आकर वह बहुमूल्य भेंट राजा के सामने रखी । तत्पश्चात् चन्द्रच्छाय अंगराज ने उस दिव्य एवं महामूल्यवान् कुण्डलयुगल का स्वीकार किया । स्वीकार करके उन अर्हन्त्रक आदि से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियों ! आप बहुत से ग्रामों, आकरों आदि में भ्रमण करते हों तथा बार-बार लवणसमुद्र में जहाज द्वारा प्रवेश करते हो तो आपने पहले किसी जगह कोई भी आश्चर्य देखा है ?" तब उन अर्हन्त्रक आदि वणिकों ने चन्द्रच्छाय नामक अङ्गदेश के राजा से इस प्रकार कहा- हे स्वामिन् ! हम अर्हनक आदि बहुत से सांयात्रिक नौकावणिक् इसी चम्पानगरी में निवास करते हैं । एक बार किसी समय हम गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड भर कर यावत् कुम्भ राजा के पास पहुँचे और भेंट उसके सामने रखी । उस समय कुम्भ ने मल्लीनामक विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या को वह दिव्य कुंडलयुगल पहना कर उसे विदा कर दिया । तो हे स्वामिन् ! हमने कुम्भ राजा के भवन में विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्ली आश्चर्य रूप में