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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/८७ १३७ तत्पश्चात् वह नोका बन्धनों से मुक्त हुई एवं पवन के बल से प्रेरित हुई । उस पर सफेद कपड़े का पाल चढ़ा हआ था, अतएव ऐसी जान पड़ती थी जैसे पंख फैलाए कोई गरुड़-युवती हो ! वह गंगा के जल के तीव्र प्रवाह के वेग से क्षुब्ध होती-होती, हजारों मोटी तरंगों और छोटी तरंगों के समूह को उल्लंघन करती हुई कुछ अहोरात्रों में लवणसमुद्र में कई सौ योजन दूर तक चली गई । तत्पश्चात् कई सौ योजन लवण-समुद्र में पहुँचे हुए उन अर्हन्त्रक आदि सांयात्रिक नौका-वणिकों को बहुत से सैकड़ों उत्पात प्रादुर्भूत होने लगे । वे उत्पात इस प्रकार थे । अकाल में गर्जना होने लगी, अकाल में बिजली चमकने लगी, अकाल में मेघों की गंभीर गड़गड़ाहट होने लगी । बार-बार आकाश में देवता (मेघ) नृत्य करने लगे । इसके अतिरिक्त एक ताड़ जैसे पिशाच का रूप दिखाई दिया । वह पिशाच ताड़ के समान लंबी जांधों वाला था और उसकी बाहुएँ आकाश तर पहुँची हुई थीं । वह कज्जल, काले चूहे और भैंसे के समान काला था । उसका वर्ण जलभरे मेघ के समान था । होठ लम्बे थे और दांतों के अग्रभाग मुख से बाहर निकले थे । दो जीभे मुँह से बाहर निकाल रक्खी थीं । गाल मुँह में घुसे हुए थे । नाक छोटी और चपटी थी । भृकुटि डरावनी और अत्यन्त वक्र थी । नेत्रों का वर्ण जुगनू के समान चमकता हुआ लाल था । देखने वाले को घोर त्रास पहुंचानेवाला था । उसकी छाती चौड़ी थी, कुक्षि विशाल और लम्बी थी । हँसते और चलते समय उसके अवयव ढीले दिखाई देते थे । वह नाच रहा था, आकाश को मानो फोड़ रहा था, सामने आ रहा था, गर्जना कर रहा था और बहुत-बहुत ठहाके मार रहा था । ऐसे काले कमल, भैंस के सींग, नील, अलसी के फूल के समान काली तथा छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण तलवार लेकर आते हुए पिशाच को उन वर्णिकों ने देखा । अर्हनक को छोड़कर शेष नौकावणिक् तालपिशाच के रूप को नौका की ओर आता देख कर डर गये, अत्यन्त भयभीत हुए, एक दूरे के शरीर से चिपट गये और बहुत से इन्द्रों की, स्कन्दों की तथा रुद्र, शिव, वैश्रमण और नागदेवों की, भूतों की, यक्षों की, दुर्गा की तथा कोट्टक्रिया देवी की बहुत-बहुत सैकड़ों मनौतियाँ मनाने लगे । अर्हनक श्रमणोपासक से उस दिव्य पिशाचरूप का आता देखा । उसे देख कर वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ, त्रास को प्राप्त नहीं हुआ, चलायमान नहीं हुआ, संभ्रान्त नहीं हुआ, व्याकुल नहीं हुआ, उद्विग्न नहीं हुआ । उसके मुख का राग और नेत्रों का वर्ण नहीं बदला । मन में दीनता या खिन्नता उत्पन्न नहीं हुई । पोतवहन के एक भाग में जाकर वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन करके उस स्थान पर बैठ गया और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोला-'अरिहन्त भगवंत' यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो । फिर कहा-'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मुझे यह कायोत्सर्ग पास्ना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊँ तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, इस प्रकार कहकर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया ।। वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अर्हन्त्रक श्रमणोपासक था । आकर अर्हनक से कहने लगा-'अरे अप्रार्थित'-मौत-की प्रार्थना करने वाले ! यावत परिवर्जित ! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण-रागादि की विरति, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना खण्डित करना; भंग करना नहीं है, परन्तु तू शीलव्रत आदि का परित्याग नहीं करतो तो मैं तेरे इस
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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