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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/७/७५ १२५ पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष पुत्रवधुओं की परीक्षा करने के लिए पांच-पांच शालिअक्षत दूँ । उससे जान सकूँगा कि कौन पुत्रवधू किस प्रकार उनकी रक्षा करती है, सारसम्भाल रखती हैं या बढ़ाती है ? धन्य सार्थवाह ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबन्धी जनों तथा परिजनों को तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह वर्ग को आमंत्रित किया । आमंत्रित करके विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । उसके बाद धन्यसार्थवाह ने स्नान किया । वह भोजन-मंडप में उत्तम सुखासन पर बैठा । फिर मित्र, ज्ञात, निजक, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह वर्ग के साथ उस विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन करके, यावत् उन सबका सत्कार किया, सम्मान किया, उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने पाँच चावल के दाने लिए । लेकर जेठी कुलवधू उज्झिका को बुलाया । इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पांच चावल के दाने लो । इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती रहना । हे पुत्री ! जब मैं तुम से यह पांच चावल के दाने मांगू, तब तुम यही पांच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना ।' उस प्रकार कह कर पुत्रवधू उज्झिका के हाथ में वह दाने दे दिए । देकर उसे विदा किया । धन्य-सार्थवाह के हाथ से पांच शालिअक्षत ग्रहण किये । एकान्त में गई। वहाँ जाकर उसे इस प्रकार का विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-'निश्चय ही पिता के कोठार में शालि से भरे हुए बहुत से पल्य विद्यमान हैं । सो जब पिता मुझसे यह पाँच शालि अक्षत मांगेंगे, तब मैं किसी पल्य से दूसरे शालि-अक्षत लेकर दे दूंगी ।' उसने ऐसा विचार करके उन पांच चावल के दानों को एकान्त में डाल दिया और डाल कर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार दूसरी पुत्रवधू भोगवती को भी बुलाकर पांच दाने दिये, इत्यादि। विशेष यह है कि उसने वह दाने छीले और छील कर निगल गई । निगल कर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार तीसरी रक्षिका के सम्बन्ध में जानना । विशेषता यह है कि उसने वह दाने लिए । लेने पर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता ने मित्र ज्ञाति आदि के तथा चारों बहुओं के कुलगृहवर्ग के सामने मुझे बुलाकर यह कहा है कि-'पुत्री ! तुम मेरे हाथ से यह पांच दाने लो, यावत् जब मैं माँगू तो लौटा देना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए।' विचार करके वे चावल के पांच दाने शुद्ध वस्त्र में बांधे । बांध कर रत्नों की डिबिया में रख लिए, रख कर सिरहाने के नीचे स्थापित किए और प्रातः मध्याह्न और सायंकाल-इन तीनों संध्याओं के समय उनकी सार-सम्भाल करती हुई रहने लगी । तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने उन्हीं मित्रों आदि के समक्ष चौथी पुत्रवधू रोहिणी को बुलाया । बुलाकर उसे भी वैसा ही कहकर पांच दाने दिये । यावत् उनसे सोचा-'इस प्रकार पांच दाने देने में कोई कारण होना चाहिए । अतएव मेरे लिए उचित हैं कि इन पांच चावल के दानों का संरक्षण करूँ, संगोपन करूँ और इनकी वृद्धि करूँ ।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके अपने कुलगृह के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम इन पांच शालि-अक्षतों को ग्रहण करो । ग्रहण करके पहली वर्षा ऋतु में अर्थात् वर्षा के आरम्भ में जब खूब वर्षा हो जब एक छोटी-सी क्यारी को अच्छी तरह साफ करना । साफ
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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