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________________ १२४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अब हे गौतम ! उस तुम्बे का पहला मिट्टी का लेप गीला हो जाय, गल जाय और परिशटित हो जाय तो वह तुम्बा पृथ्वीतल से कुछ ऊपर आकर ठहरता है । तदनन्तर दूसरा मृत्तिकालेप गीला हो जाय, गल जाय, और हट जाय तो तुम्बा कुछ और ऊपर आता है । इस प्रकार. इस उपाय से उन आठों मत्तिकालेपों के गीले हो जाने पर यावत हट जाने पर तुम्बा निर्लेप, बंधनमुक्त होकर धरणीतल से ऊपर जल को सतह पर आकर स्थित हो जाता है । इसी प्रकार, हे गौतम ! प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमण से जीवे क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय करके ऊपर आकाशतल की ओर उड़ कर लोकाग्र भाग में स्थित हो जाते हैं । इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं । हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है | वही मैं तुमसे कहता हूँ । अध्ययन-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-७-'रोहिणी') [७५] भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने छठे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था । उस राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह निवास करता था, वह समृद्धिशाली था, वह किसीसे पराभूत होनेवाला नहीं था । उस धन्य-सार्थवाह की भद्रा नामक भार्या थी । उसकी पाँचों इन्द्रियों और शरीर के अवयव परिपूर्ण थे, यावत् वह सुन्दर रूप वाली थी । उस धन्य-सार्थवाह के पुत्र और भद्रा भार्या के आत्मज चार सार्थवाह-पुत्र थे । धनपाल, धनदेव, धनगोप, घनरक्षित | उस धन्य-सार्थवाह की चार पुत्रवधुएँ थी । उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी । धन्य-सार्थवाह को किसी समय मध्य रात्रि में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ निश्चय ही मैं राजगृह नगर में राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि-आदि के और अपने कुटुम्ब के भी अनेक कार्यों मे, करणीयों में, कुटुम्ब सम्बन्धी कार्यों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त बातों में, रहस्यमय बातों में, निश्चय करने में, व्यवहारों में, पूछने योग्य, बारबार पूछने योग्य, मेढ़ी के समान, प्रमाणभूत, आधार, आलम्बन, चक्षु के समान पथदर्शनक, मेढ़ीभूत और सब कार्यों की प्रवृत्ति करानेवाला हूँ । परन्तु न जाने मेरे कहीं दूसरी जगह चले जाने पर, किसी अनाचार के कारण अपने स्थान से च्युत हो जानेपर, मर जाने पर, भग्न हो जाने पर रुग्ण हो जाने पर, विशीर्ण हो जाने पर, पड़ जाने पर, परदेश में जाकर रहने पर अथवा मेरे कुटुम्ब का पृथ्वी की तरह आधार, रस्सी के समान अवलम्बन और बुहारू की सलाइयों के समान प्रतिबन्ध करनेवाला- कोन होगा ? अतएव मेरे लिए यह उचित होगा कि कल यावत् सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजनों आदि को तथा चारों वधुओं के कुलगृह के समुदाय को आमंत्रित करके और उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृह-वर्ग का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि से सत्कार करके, सम्मान करके, उन्हीं मित्र ज्ञाति आदि के समक्ष तथा चारों
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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