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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/५/६८ ११९ थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक पब्रिाजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं आपके पास से केवलीप्ररूपित धर्म सुनने की अभिलाषा करता हूँ । तत्पश्चात् शुक पब्रिाजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सुन कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला- भगवन् ! मैं एक हजार पख्रिाजकों के साथ देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' थावच्चापुत्र अनगार बोले'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो ।' यह सुनकर यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक पब्रिाजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त में उतार डाले । अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली । उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । वन्दननमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके मुंडित होकर यावत् थावच्चा-पुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया । फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने शुक को एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किये । __ तत्पश्चात् थावच्चावुत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर निकले । निकल कर जनपदविहार अर्थात् विभिन्न देशों में विचरण करने लगे । तत्पश्चात् वह थावच्चापुत्र हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीक-शत्रुजय पर्वत था, वहाँ आये । धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ़ हुए । उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर आहार-पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ़ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया । वह थावच्यापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, एस मां की संलेखना करके साट भक्तो का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिवणि प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए । तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहीं पधारे । उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली । शैलक राजा भी निकला | धर्मोपदेश सुनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ । विशेष यह कि राजा ने निवेदन कियाहे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लूं-उनकी अनुमति ले लूँ और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूँ । उसके पश्चात् आप देवानुप्रिय के समीप मुंडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूँगा । यह सुनकर, शुक अनगार ने कहा'जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया । जहाँ अपना घर था और उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । आकर सिंहासन पर आसीन हुआ । तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक आदि पांच सौ मंत्रियों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा'हे देवानुप्रिय ! मैंने शुक अनगार से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है । वह धर्म मुझे रुचा है । अतएव हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्र होकर दीक्षा ग्रहण कर रहा हूँ । देवानुप्रियो ! तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे ? तुम्हारा हित और अभीष्ट क्या है ? अथवा तुम्हारी हार्दिक इच्छा क्या है ?' तब वे पंथक आदि मंत्री शैलक राजा से इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत् प्रव्रजित होना चाहते हैं, तो हे देवानुप्रिय ! हमारा दूसरा आधार कौन है ? हमारा आलंबन कौन है ? अतएव
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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