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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न होकर दीक्षा अंगीकार करेंगे । हे देवानुप्रिय ! जैसे आप यहाँ गृहस्थावस्था में बहुत से कार्यों में, कुटुम्ब संबन्धी विषयों में, मन्त्रणाओं में, गुप्त एवं रहस्यमय बातों में, कोई भी निश्चय करने में एक और बार-बार पूछने योग्य हैं, मेढी, प्रमाण, आधार, आलंबन और चक्षुरूप-मार्गदर्शक हैं, मेढी प्रमाण आधार आलंबन एवं नेत्र समान है यावत् आप मार्गदर्शक हैं, उसी प्रकार दीक्षित होकर भी आप बहुत-से कार्योंमें यावत् चक्षुभूत होंगे।
___ तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक प्रभृति पांच सौं मंत्रियों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् दीक्षा ग्रहण करना चाहते हो तो, देवानुप्रियो ! जाओ और अपने-अपने कुटुम्बों में अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को कुटुम्ब के मध्य में स्थापित करके अर्थात् परिवार का समस्त उत्तरदायित्व उन्हें सौंप कर हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविकाओं पर आरूढ़ होकर मेरे समीप प्रकट होओ ।' यह सुन कर पांच सौ मंत्री अपने-अपने घर चले गये और राजा के आदेशानुसार कार्य करके शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर वापिस राजा के पास प्रकट हुए-आ पहुँचे । तत्पश्चात् शैलक राजा ने पांच सौ मंत्रियों को अपने पास आया देखा । देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही मंडुकर कुमार के महान् अर्थ वाले राज्याभिषेक की तैयारी करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया । शैलक राजा ने राज्याभिषेक किया। मंडुक कुमार राजा हो गया, यावत् सुखपूर्वक विचरने लगा । तत्पश्चात् शैलक ने मंडुक राजा से दीक्षा राजा से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी । तब मंडुकर राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'शीघ्र ही शैलकपुर नगर को स्वच्छ और सिंचित करके सुगंध की बट्टी के समान करो और कराओ । ऐसा करके और कराकर यह आज्ञा मुझ वापिस सौंपो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो ।'
तत्पश्चात् मंडुकर राजा ने दुवारा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'शीघ्र ही शैलक महाराजा के महान् अर्थवाले यावत् दीक्षाभिषेक की तैयारी करो ।' जिस प्रकार मेधकुमार के प्रकरण में प्रथम अध्नययन में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना । विशेषता यह है कि पद्मावती देवी ने शैलक के अग्रकेश ग्रहण किये । सभी दीक्षार्थी प्रतिग्रहपात्र आदि ग्रहण करके शिविका पर आरूढ़ हुए । शेष वर्णन पूर्ववत् समझना । यावत् सजर्षि शैलक ने दीक्षित होकर सामायिक से आरम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । अध्ययन करके बहुत से उपवास आदि तपश्चरण करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् शुक अनगार ने शैलक अनगार को पंथक प्रभृति पाँचसौ अनगार शिष्य रूप में प्रदान किये । फिर शुक मुनि किसी समय शैलकपुर नगर से और सुभूमिमाग उद्यान से बाहर निकाले । निकलकर जनपदों में विचरने लगे । तत्पश्चात् वह शुक अनगार एक बार किसी समय एक हजार अनगारों के साथ अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपनी अन्तिम समय समीप आया । जानकर पुंडरीक पर्वत पर पधारे । यावत् केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध यावत् दुःखों रहित हो गए ।
[६९] तत्पश्चात् प्रकृति से सुकुमार और सुखभोग के योग्य शैलक राजर्षि के शरीर में सदा अन्त, प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, ठंडा-गरम, कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त