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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वे आभियोगिक देव वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं और वृष्टिकायिक देव वृष्टि करते हैं । इस प्रकार देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है ।
भगवन् ! क्या असुरकुमार देव भी वृष्टि करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से वृष्टि करते हैं ? गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान् होते हैं, उनके जन्म-महोत्सवों पर, निष्क्रमणमहोत्सवों पर, ज्ञान की उत्पत्ति के महोत्सवों पर, परिनिर्वाण-महोत्सवों जैसे अवसरों पर हे गौतम ! असुरकुमार देव वृष्टि करते हैं । इसी प्रकार नागकुमार देव भी वृष्टि करते हैं । स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए ।
[६०२] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब किस प्रकार करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है वे आभ्यन्तर परिषद् के देव मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं, इत्यादि सब वर्णन; यावत्-'तब बुलाये हुए वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं, और फिर वे समाहूत तमस्कायिक देव तमस्काय करते हैं; यहाँ तक शक्रेन्द्र के समान जानना । हे गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करता है । भगवन् ! क्या असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! असुरकुमार देव किस कारण से तमस्काय करते हैं ? गौतम ! क्रीड़ा और रति के निमित्त, शत्रु को विमोहित करने के लिए, गोपनीय धनादि की सुरक्षा के हेतु, अथवा अपने शरीर को प्रच्छादित करने के लिए, हे गौतम ! इन कारणों के असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
| शतक-१४ उद्देशक-३ [६०३] भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर-निकल जाता है ? गौतम ! कोई निकल जाता है, और कोई नहीं जाता है । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! देव दो प्रकार के हैं, मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक एवं अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । इन दोनों में से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है, (किन्तु) देख कर न तो वन्दना-नमस्कार करता है, न सत्कार-सम्मान करता है और न ही कल्याणरूप, मंगलरूप, देवतारूप एवं ज्ञानवान् मानता है, यावत् न पर्युपासना करता है । ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर चला जाता है, किन्तु जो अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है । देख कर वन्दना-नमस्कार, सत्कार-सम्मान करता है, यावत पर्युपासना करता है । ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर नहीं जाता । भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर जाता है ? गौतम ! पूर्ववत् समझना । इसी प्रकार देव-दण्डक वैमानिकों तक कहना।
[६०४] भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, आसनाभिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा करना, उठ कर जाते हुए के पीछे जाना इत्यादि विनय-भक्ति है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन आदि