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भगवती-१४/-/३/६०४
विनयभक्ति होती है । हाँ, गौतम ! है । इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों तक (कहना चाहिए ।) नैरयिकों के अनुसार पृथ्वीकायादि से ले कर चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना । भगवन् ! क्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों में सत्कार, सम्मान, यावत् अनुगमन आदि विनय है ? हाँ, गौतम ! है, परन्तु इनमें आसनाभिग्रह या आसनाऽनुप्रदानरूप विनय नहीं है । असुरकुमारों के समान मनुष्यों से लेकर वैमानिकों तक कहना।
[६०५] भगवन् ! अल्पकृद्धि वाला देव, क्या महर्द्धिक देव के मध्य में हो कर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! समर्द्धिक देव, सम-ऋद्धि वाले देव के मध्य में से होकर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु प्रमत्त हो तो जा सकता है । भगवन् ! मध्य में होकर जाने वाले देव, शस्त्र का प्रहार करके जा सकता है या बिना प्रहार किये ही जा सकता है ? गौतम ! वह शस्त्राक्रमण करके जा सकता है, बिना शस्त्राक्रमण किये नहीं। भगवन् ! वह देव, पहले शस्त्र का आक्रमण करके पीछे जाता है, अथवा पहले जा कर तत्पश्चात् शस्त्र से आक्रमण करता है ? गौतम ! पहले शस्त्र का प्रहार करके फिर जाता है, किन्तु पहले जाकर फिर शस्त्र-प्रहार नहीं करता । इस प्रकार दशवें शतक के तीसरे उद्देशक के अनुसार समग्र रूप से चारों दण्डक कहना, यावत् महाकृद्धि वाली वैमानिक देवी, अल्पकृद्धि वाली वैमानिक देवी के मध्य में से होकर जा सकती है ।
भगवन् ! महर्द्धिक देव, अल्पर्द्धिक देव के मध्य में हो कर जा सकता है ? हाँ, गौतम ! जा सकता है । भगवन् ! महर्द्धिक देव शस्त्राक्रमण करके जा सकता है या शस्त्राक्रमण किये बिना ही जा सकता है ? गौतम ! शस्त्राक्रमण करके भी जा सकता है और शस्त्राक्रमण किये बिना भी जा सकता है । भगवन् ! पहले शस्त्राक्रमण करके पीछे जाता है या पहले जाकर बाद में शस्त्राक्रमण करता है ? गौतम ! वह पहले शस्त्राक्रमण करके पीछे भी जा सकता है अथवा पहले जा कर बाद में भी शस्त्राक्रमण कर सकता है ।
[६०६] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलपरिणामों का अनुभव करते रहते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम का अनुभव करते रहते हैं । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक कहना । इसी प्रकार वेदना-परिणाम का भी (अनुभव करते हैं ।) इसी प्रकार जीवाभिगमसूत्र के नैरयिक उद्देशक समान यहाँ भी वे समग्र आलापक कहने चाहिए, यावत्-भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक, किस प्रकार के परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते रहते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते हैं, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, इसी प्रकार है ।
| शतक-१४ उद्देशक-४ | [६०७] भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त, अपरिमित और शाश्वत अतीतकाल में एक समय तक रूक्ष स्पर्श वाला रहा, एक समय तक अरूक्ष स्पर्श वाला और एक समय तक रूक्ष
और स्निग्ध दोनों प्रकार के स्पर्श वाला रहा ? (तथा) पहले करण के द्वारा अनेक वर्ण और अनेक रूपवाले परिणाम से परिणत हुआ और उसके बाद उस अनेक वर्णादि परिणाम के क्षीण होने पर वह एक वर्ण और एक रूप वाला भी हुआ था ? हाँ, गौतम ! यह पुद्गल...अतीत काल में...इत्यादि सर्वकथन, यावत्-'एक रूप वाला भी हुआ था' । भगवन् ! यह पुद्गल शाश्वत