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________________ भगवती-१२/-/७/५५० असंख्येय कोटा-कोटि योजन है । इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, एवं ऊर्ध्व तथा अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा-कोटि योजन-आयाम-विष्कम्भ वाला है । भगवन् ! इतने बड़े लोक में क्या कोई परमाणु-पुद्गल जितना भी आकाशप्रदेश ऐसा है, जहाँ पर इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष सौ बकरियों के लिए एक बड़ा बकरियां का बाड़ा बनाए । उसमें वह एक, दो या तीन और अधिक से अधिक एक हजार बकरियों को रखे । वहाँ उनके लिए घास-चारा चरने की प्रचुर भूमि और प्रचुर पानी हो । यदि वे बकरियाँ वहाँ कम से कम एक, दो या तीन दिन और अधिक से अधिक छह महीने तक रहें, तो है गौतम ! क्या उस अजाब्रज का कोई भी परमाणु-पुद्गलमात्र प्रदेश ऐसा रह सकता है, जो उन बकरियों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, वमन, पित्त, शुक्र, रुधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नखों से अस्पृष्ट न रहा हो ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे गौतम ! कदाचित् उस बाड़े में कोई एक परमाणु-पुद्गलमात्र प्रदेश ऐसा भी रह सकता है, जो उन बकरियों के मल-मूल यावत् नखों से स्पृष्ट न हुआ हो, किन्तु इतने बड़े इस लोक में, लोक के शाश्वतभाव की दृष्टि से, संसार के अनादि होने के कारण, जीव की नित्यता, कर्मबहलता तथा जन्म-मरण की बहलता की अपेक्षा से कोई परमाणु-पुद्गल-मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । हे गौतम ! इसी कारण उपर्युक्त कथन किया गया है कि यावत् जन्म-मरण न किया हो । [५५१] भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात हैं । प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक अनुसार (यहाँ भी) नरकादि के आवासों को कहना । यावत् अनुत्तर-विमान यावत् अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक इसी प्रकार कहना।। ___भगवन् ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वीकायिकरूप से यावत् वनस्पतिकायिक रूप से, नरक रूप में, पहले उत्पन्न हुआ है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है ।) भगवन् ! क्या सभी जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, नरकपने और नैरयिकपने, पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? (हाँ, गौतम !) उसी प्रकार अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं । भगवन् ! यह जीव शर्कराप्रभापृथ्वी के पच्चीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में, यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के समान दो आलापक कहने चाहिए । इसी प्रकार यावत् धूमप्रभापृथ्वी तक जानना । भगवन् ! क्या यह जीव तमःप्रभापृथ्वी के पांच कम एक लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है ? (हाँ, गौतम !) पूर्ववत् जानना | भगवन् ! यह जीव अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर और महातिमहान् महानरकावासों में क्या पूर्ववत् उत्पन्न हो चुके हैं ? (हाँ, गौतम !) शेष सर्वकथन पूर्ववत् जानना। भगवन् ! क्या यह जीव, असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारवासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, देवरूप में या देवीरूप में अथवा आसन, शयन, भांड, पात्र आदि उपकरणरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? हाँ, गौतम ! अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है ।) भगवन् ! क्या सभी जीव (पूर्वोक्तरूप में उत्पन्न
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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