SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद भविष्यकालीन पुद्गलपरिवर्त अनन्त-अनन्त कहने चाहिए । जहाँ नहीं हों, वहाँ अतीत और अनागत दोनों नहीं कहने चाहिए । यावत्-'भगवन् ! अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव में कितने आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त हुए ? (उत्तर-) गौतम ! अनन्त हुए हैं । 'भगवन् ! आगे कितने होंगे?' 'गौतम ! अनन्त होंगे ।' यहाँ तक कहना चाहिए । [५४०] भगवन् ! यह औदारिक-पुद्गलपरिवर्त, औदारिक-पुद्गलपरिवर्त किसलिए कहा जाता है ? गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, बद्ध किये हैं स्पृष्ट किये हैं; पोषित किये हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है, उन्हें प्रस्थापित किया है; स्थापित किये हैं, जीव के साथ सर्वथा संलग्न किये हैं; जीव ने रसानुभूति का आश्रय लेकर सबको समाप्त किया है । (जीव ने रसग्रहण द्वारा सभी अवयवों से उन्हें) पर्याप्त कर लिये हैं । परिणामान्तर प्राप्त कराये हैं, निर्जीर्ण किये हैं, पृथक किये हैं, अपने प्रदेशों से परित्यक्त किये हैं । हे गौतम ! इसी कारण से औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्त औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्त कहलाता है । इसी प्रकार वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त के विषय में भी कहना। इतना विशेष है कि जीव ने वैक्रियशरीर में रहते हुए वैक्रियशरीर योग्य द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, इत्यादि शेष सब कथन पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् आन-प्राण-पुद्गलपवित तक कहना चाहिए । विशेष यह है कि आन-प्राण-योग्य समस्त द्रव्यों को आन-प्राण रूप से जीव ने ग्रहण किये हैं, इत्यादि (सब कथन करना चाहिए)। शेष पूर्ववत् । भगवन् ! औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्त कितने काल में निर्वर्तित-निष्पन्न होता है ? गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकाल में निष्पन्न होता है । इसी प्रकार वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त तथा यावत् आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त (का निष्पत्तिकाल जानना चाहिए ।) भगवन् ! औदारिक-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तना काल, यावत् आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकाल, इन (सातों) में से कौन सा काल, किस काल से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ा कार्मण-पुद्गलपरिवर्त्त का निवर्त्तना काल है । उससे तैजस-पुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है । उससे औदारिक-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है और उससे आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है । उससे मनः-पुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है उससे वचन-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है और उससे वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त का निवर्त्तनाकाल अनन्तगुणा है ।। [५४१] भगवन् ! औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्त (से लेकर), आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त में कौन पुद्गलपरिवर्त किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त हैं। उनसे वचन-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे होते हैं, उनसे मनः-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं । उनसे औदारिक-पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं, उनसे तैजसपुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं और उनसे भी कार्मण-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | शतक-१२ उद्देशक-५ [५४२] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा- भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह; ये कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और स्पर्श वाले
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy