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भगवती-११/-/१२/५२८ देवलोक विच्छिन हो गए हैं ।"
भगवन् ! क्या सौधर्म-देवलोक में वर्णसहित और वर्णरहित द्रव्य अन्योऽन्यबद्ध यावत् सम्बद्ध हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । हाँ गौतम ! हैं । इसी प्रकार क्या ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में तथा ग्रैवेयकविमानों में और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में भी वर्णादिसहित और वर्णादिरहित द्रव्य हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । तदनन्तर वह महती परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर) यावत् वापस लौट गई।
तत्पश्चात् आलभिका नगरी में श्रृंगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोगों से यावत् मुद्गल पखिाजक ने भगवान् द्वारा दिया अपनी मान्यता के मिथ्या होने का निर्णय सुन कर इत्यादि सब वर्णन शिवराजर्षि के समान कहना, यावत् सर्वदुःखों से रहित होकर विचरते हैं; मुद्गल पब्रिाजक ने भी अपने त्रिदण्ड, कुण्डिका आदि उपकरण लिये, भगवाँ वस्त्र पहने और वे आलभिका नगरी के मध्य में हो कर निकले, यावत् उनकी पर्युपासना की । भगवान् द्वारा अपनी शंका का समाधान हो जाने पर मुद्गल पब्रिाजक भी यावत् उत्तरपूर्वदिशा में गए और स्कन्दक की तरह त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवाँ वस्त्र एकान्त में छोड़ कर यावत् प्रव्रजित हो गए । यावत् वे सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'। शतक-१२ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(शतक-१२) [५२९] बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं । (१) शंख, (२) जयन्ती, (३) पृथ्वी, (४) पुद्गल, (५) अतिपात, (६) राहु, (७) लोक, (८) नाग, (९) देव और (१०) आत्मा ।
| शतक-१२ उद्देशक-१ | [५३०] उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी थी । कोष्ठक उद्यान था, उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे । (वे) आढ्य यावत् अपरिभूत थे; तथा जीव, अजीव आदि तत्वों के ज्ञाता थे, यावत् विचरते थे । उस 'शंख' श्रमणोपासक की भार्या 'उत्पला' थी । उसके हाथ-पैर अत्यन्त कोमल थे, यावत् वह रूपवती एवं श्रमणोपासिका थी, तथा जीव-अजीव आदि तत्त्वों की जानने वाली यावत् विचरती थी । उसी श्रावस्ती नगरी में पुष्कली नाम का श्रमणोपासक रहता था । वह भी आढ्य यावत् जीव-अजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था यावत् विचरता था ।
उस काल और उस समय में महावीर स्वामी श्रावस्ती पधारे । परिषद् वन्दन के लिए गई, यावत् पर्युपासना करने लगी । तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक भी, आलभिका नगरी के श्रमणोपासक के समान उनके वन्दन एवं धर्मकथाश्रवण आदि के लिए गए यावत् पर्युपासना करने लगे । श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों को और महती महापरिषद् की धर्मकथा कही । यावत् परिषद् वापिस चली गई । वे श्रमणोपासक भगवान् महावीर के पास धर्मोपदेश सुन कर
और अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, तथा उनका अर्थ ग्रहण किया । फिर उन्होंने खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और कोष्ठक उद्यान से निकल कर श्रावस्ती नगरी की ओर जाने