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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
यथोचित गृहीत तपःकर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन करेगा । फिर मासिक संलेखना द्वारा साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर तथा समाधि प्राप्त कर, काल के अवसर पर काल करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा | वहाँ कृषिभद्रपुत्र-देव की भी चार पल्योपम की स्थिति होगी । भगवन् ! वह कृषिभद्रपुत्र-देव उन देवलोक से आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय करके यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा ।
[५२८] पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान् महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे।
उस काल और उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी । वहाँ शंखवन नामक उद्यान था । उस शंखवन उद्यान के न अतिदूर और न अतिनिकट मुद्गल पब्रिाजक रहता था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत-से ब्राह्मण-विषयक नयों में सम्यक् निष्णात था । वह लगातार बेले-बेले का तपःकर्म करता हुआ तथा आतापनाभूमि में दोनों भुजाएँ ऊँची करके यावत् आतापना लेता हुआ विचरण करता था । इस प्रकार से बेले-बेले का तपश्चरण करते हुए मुद्गल पख्रिाजक को प्रकृति की भद्रता आदि के कारण शिवराजर्षि के समान विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ । वह उस समुत्पन्न विभंगज्ञान के कारण पंचम ब्रह्मलोक कल्प में रहे हुए देवों की स्थिति तक जानने-देखने लगा।
तत्पश्चात् उस मुद्गल पख्रिाजक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि-"मुझे अतिशय-ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है । उससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं ।" इस प्रकार उसने ऐसा निश्चय कर लिया । फिर वह आतापनाभूमि से नीचे उतरा और त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गैरिक वस्त्रों को लेकर आलभिका नगरी में जहाँ तापसों का मठ था, वहाँ आया । वहाँ उसने अपने भण्डोपकरण रखे और आलभिका नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्ग पर एक-दूसरे से इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगा-“हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता-देखता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति यावत् (दस सागरोपम की है ।) इससे आगे देवों और देवलोकों का अभाव है ।" इस बात को सुन कर आलभिका नगरी के लोग परस्पर शिव राजर्षि के अभिलाप के समान कहने लगे यावत्-“हे देवानुप्रियो ! उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?"
भगवान् महावीर स्वामी का वहां पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् वापस लौटी । गौतमस्वामी उसी प्रकार नगरी में भिक्षाचर्या के लिए पधारे तथा बहुत-से लोगों में परस्पर चर्चा होती हुई सुनी। शेष पूर्ववत्, यावत् (भगवान् ने कहा-) गौतम ! मुद्गल पब्रिाजक का कथन असत्य है । मैं इस प्रकार प्ररूपणा करता हूँ, इस प्रकार प्रतिपादन करता हूँ यावत् इस प्रकार कथन करता हूँ"देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति तो दस हजार वर्ष की है । किन्तु इसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है । इससे आगे देव और