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भगवती-११/-/१२/५२५
वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे । उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ |
हे आर्यो! देवलोकों में देवों की स्थिति, कितने काल की है ? ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासकने उन श्रमणोपासकों से कहा-आर्यो ! देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् दस समय अधिक, संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । इसके उपरान्त अधिक स्थिति वाले देव और देवलोक नहीं हैं । तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक के द्वारा इस प्रकार कही हुई यावत् प्ररूपित की हुई इस बात पर न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि ही की; वे श्रमणोपासक जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए ।
[५२६] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर यावत् (आलभिका नगरी में) पधारे, यावत् परिषद् ने उनकी पर्युपासना की । तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान आलभिका नगरी के वे श्रमणोपासक इस बात को सुन कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान् की पर्युपासना करने लगे । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा उस बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही, यावत् वे आज्ञा के आराधक हुए ।
__ वे श्रमणोपासक भगवान् महावीर के पास से धर्म-श्रवण कर एवं अवधारण करके हृष्टतुष्ट हुए । फिर वे स्वयं उठे और खड़े होकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-भगवन् ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने हमें इस प्रकार कहा, यावत् प्ररूपणा की हे आर्यो ! देवलोकों में देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष है । उसके आगे एक-एक समय अधिक यावत् इसके बाद देव और देवलोक विच्छिन्न हैं, नहीं हैं । तो क्या भगवन् ! यह बात ऐसी ही है ? भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा उस बड़ी परिषद् को कहाहे आर्यो ! कृषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने जो तुमसे इस प्रकार कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके आगे एक समय अधिक, यावत् इसके आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं-यह अर्थ सत्य है । हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि देवलोकों में देवों की यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है, यावत् इससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हो जाते हैं । आर्यो! यह बात सर्वथा सत्य है ।
तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान् महावीर से यह समाधन सुनकर और हृदय में अवधारण कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया; फिर जहाँ कृषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक था, वे वहाँ आए । कृषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक के पास आकर उन्होंने उसे वन्दन-नमस्कार किया और उसकी बात को सत्य न मानने के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की । फिर उन श्रमणोपासकों ने भगवान् से कई प्रश्न पूछे तथा उनके अर्थ ग्रहण किए और भगवान् महावीर को वन्दनानमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए।
[५२७] तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके पूछा-भगवन् ! क्या ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगाखास से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासों से तथा