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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
दिन के लिए भी तुम्हारी राज्यश्री देखना चाहते हैं ।" यह सुनकर महाबल कुमार चुप रहे । इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, शिवभद्र के राज्याभिषेक अनुसार महाबल कुमार के राज्याभिषेक का वर्णन समझ लेना, यावत् राज्याभिषेक किया, फिर हाथ जोड़ कर महाबल कुमार को जय-विजय शब्दों से बधाया; तथा कहा- हे पुत्र ! कहो, हम तुम्हें क्या देवें ? तुम्हारे लिए हम क्या करें ? इत्यादि जमालि के समान जानना, यावत् महाबल कुमार ने धर्मघोष अनगार से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।
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दीक्षाग्रहण के पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वों का अध्ययन किया तथा उपवास, बेला, तेला आदि बहुत-से विचित्र तपः कर्मों से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया और अन्त में मासिक संलेखना से साठ भक्त अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्वक काल के अवसर पर काल करके ऊर्ध्वलोक में चन्द्र और सूर्य से भी ऊपर बहुत दूर, अम्बड़ के समान यावत् ब्रह्मलोककल्प में देवरूप में उत्पन्न हुए । महाबलदेव की दस सागरोपम की स्थिति थी । हे सुदर्शन ! वही महाबल का जीव तुम हो । तुम वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोगों को भोगते हुए रह करके, वहाँ दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके, वहाँ के आयुष्य का, स्थिति का और भव का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर सीधे इस भरतक्षेत्र के वाणिज्यग्राम-नगर में, श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हो
।
[५२४] तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने तथारूप स्थविरों से केवलि - प्ररूपित धर्म सुना । वह धर्म तुम्हें इच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ । हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो ।
इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है । श्रमण भगवान् महावीर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन श्रमणोपासक को शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञीपूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे अपने पूर्वभव की बात को सम्यक् रूप से जानने लगा ।
श्रमण भगवान् महावीर द्वारा पूर्वभव का स्मरण करा देने से सुदर्शन श्रेष्ठी के हृदय में दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुए । उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण हो गए । भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना - नमस्कार करके बोला- भगवन् ! यावत् आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है । ऐसा कहकर सुदर्शन सेठ उत्तरपूर्व दिशा में गया, इत्यादि यावत् सुदर्शन श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या अंगीकार की । विशेष यह है कि चौदह पूर्वों का अध्ययन किया, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया; यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। शेष पूर्ववत् । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - ११ उद्देशक - १२
[५२५] उस काल और उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी । वहाँ शंखवन नामक उद्यान था । इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे ।