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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है ।
भगवन् ! यह किस कारण से कहा ? गौतम ! जिस प्रकार कोई श्रृंगार का घर एवं उत्तम वेष वाली यावत् सुन्दर गति, हास, भाषण, चेष्टा, विलास, ललित संलाप निपुण, युक्त उपचार से कलित नर्तकी सैकड़ों और लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण रंगस्थली में बत्तीस प्रकार के नाट्यों से में कोई एक नाट्य दिखाती है, तो- हे गौतम ! वे प्रेक्षकगण उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि से चारों
ओर से देखते हैं न ? हाँ भगवन् ! देखते हैं । गौतम ! उन की दृष्टियाँ चारों ओर से उस नर्तकी पर पड़ती हैं न ? हाँ, भगवन् ! पड़ती हैं । हे गौतम ! क्या उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की थोड़ी या ज्यादा पीड़ा पहुंचाती हैं ? या उसके अवयव का छेदन करती हैं ? भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है | गौतम ! क्या वह नर्तकी दर्शकों की उन दृष्टियों को कुछ भी बाधा-पीड़ा पहुंचाती है या उनका अवयव-छेदन करती है ? भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं है । गौतम ! क्या वे दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किंचित् भी बाधा या पीड़ा उत्पन्न करती हैं ? या उनके अवयव का छेदन करती हैं ? भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं । हे गौतम ! इसी कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि जीवों के आत्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और यावत् सम्बद्ध होने पर भी अबाधा या व्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न ही अवयवों का छेदन करते हैं ।
५१३] भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेशों, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेशों और समस्त जीवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेश सबसे थोड़े हैं, उनसे सर्वजीव असंख्यातगुणे हैं, उनसे (एक आकाशप्रदेश पर) उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेश विशेषाधिक हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-११ उद्देशक-११ | [५१४] उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था । उसका वर्णन करना चाहिए । वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था । यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था । उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था । वह आढ्य यावत् अपरिभूत था । वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था । महावीर स्वामी का बहाँ पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी ।
सुदर्शन श्रेष्ठी इस बात को सुन कर अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नानादि किया, यावत् प्रायश्चित करके समस्त वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने घर से निकला । फिर कोरंट-पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण करके अनेक पुरुषवर्ग से पखित होकर, पैदल चलकर वाणिज्यग्राम नगर के बीचोंबीच होकर निकला और जहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आया । सचित द्रव्यों का त्याग आदि पांच अभिगमपूर्वक वह सुदर्शन श्रेष्ठी भी, श्रमण भगवान् महावीर के सम्मुख गया, यावत् तीन प्रकार से भगवान् की पर्युपासना करने लगा । श्रमण भगवान् महावीर ने सुदर्शन श्रेष्ठी और उस विशाल परिषद् को धर्मोपदेश दिया, यावत् वह आराधक हुआ ।
सुदर्शन श्रेष्ठी भगवान् महावीर से धर्मकथा सुन कर एवं हृदय में अवधारण करके अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ । उसने खड़े हो कर भगवान् महावीर की तीन वार प्रदक्षिणा की और वन्दना