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________________ ३०२ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद भंग होता है । शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए । तेजस्कायिक और वायुकायिक के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए । द्वन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । विशेष यह है कि सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान इन चार स्थानों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए । पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के सम्यग्मिथ्यात्व में तीसरा भंग है । शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग जानना । मनुष्यों के सम्यग्मिथ्यात्व, अवेदक और अकषाय में तृतीय भंग ही कहना । अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना । शेष पदों में सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग है । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों समान । नाम, गोत्र और अन्तराय, कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के समान से कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक - २६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत हिन्दी अनुवाद पूर्ण शतक - २७ [ ९९१] भगवन् ! क्या जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा ? अथवा किया था, करता है और नहीं करेगा ? या किया था, नहीं करता और करेगा ? अथवा किया था, नहीं करता और नहीं करेगा ? गौतम ! किसी जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा । किसी जीव ने किया था, करता है और नहीं करेगा । किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और करेगा । किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा । भगवन् ! सलेश्य जीव ने पापकर्म किया था ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न । ( गौतम !) शतक में जो वक्तव्यता इस अभिलाप द्वारा कही थी, वह सभी कहना तथा नौ दण्डकसहित ग्यारह उद्देशक भी कहना । शतक - २७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण शतक - २८ उद्देशक - १ [९९२ ] भगवन् ! जीवों ने किस गति में पापकर्म का समर्जन किया था और किस गति में आचरण किया था ? गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और नैरयिकों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और देवों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों और मनुष्यों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों और देवों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, मनुष्यों और देवों में थे, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों, मनुष्यों और देवों में थे । भगवन् ! सलेश्यी जीव ने किस गति में पापकर्म का समर्जन और किस गति में समाचरण किया था ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार कृष्णलेश्यी जीवों यावत् अलेश्यी जीवों तक कहना । कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक ( से लेकर ) अनाकारोपयुक्त तक ऐसा ही है । भगवन् ! नैरयिकों ने कहाँ पापकर्म का समर्जन और कहां समाचरण किया था ? गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्ववत् आठों भंग कहना चाहिए । इसी प्रकार सर्वत्र अनाकारोपयुक्त तक आठ-आठ भंग कहने चाहिए । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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