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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार का कथन सूक्ष्मसम्परायसंयत तक जानना चाहिए । भगवन् ! यथाख्यातसंयत ? गौतम ! वह औपशमिकभाव या क्षायिक भाव में होता है ।
भगवन् ! सामायिकसंयत एक समय में कितने होते हैं ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा समग्र कथन कषायकुशील के समान जानना । भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न कदाचित् नहीं भी होते । यदि होते हैं तब जघन्य कोटिशतपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट भी कोटिशतपृथक्त्व होते हैं । परिहारविशुद्धिकसंयतों की संख्या पुलाक के समान है । सूक्ष्मसम्परायसंयतों की संख्या निर्ग्रन्थों के अनुसार होती है । भगवन् ! यथाख्यातसंयत ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट १६२ होते हैं, जिनमें से १०८ क्षपक और ५४ उपशमक होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं ।
भगवन् ! इन सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयतों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? सूक्ष्मसम्परायसंयत सबसे थोड़े हैं; उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत संख्यातगुणे, उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे, उनसे छेदोपस्थापनीयसंयत संख्यातगुणे और उनसे सामायिकसंयत संख्यातगुणे हैं ।
[९५४] प्रतिसेवना, दोषालोचना, आलोचनाह, समाचारी, प्रायश्चित और तप । [९५५] प्रतिसेवना कितने प्रकार की है ? दस प्रकार की है, यथा
[९५६] दर्पप्रतिसेवना, प्रमादप्रतिसेवना, अनाभोगप्रतिसेवना, आतुरप्रतिसेवना, आपत्प्रतिसेवना, संकीर्णप्रतिसेवना, सहसाकारप्रतिसेवना, भयप्रतिसेवना, प्रद्वेषप्रतिसेवना और विमर्शप्रतिसेवना ।
[९५७] आलोचना के दस दोष कहे हैं । वे इस प्रकार हैं
[९५८] आकम्प्य, अनुमान्य, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न-प्रच्छन्न, शब्दाकुल, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ।
[९५९] दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की आलोचना करने योग्य होता है । यथा-जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी ।
[९६०] समाचारी दस प्रकार की कही है, यथा
[९६१] इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, निमंत्रणा और उपसम्पदा ।
[९६२] दस प्रकार का प्रायश्चित्त कहा है । यथा-आलोचनार्ह, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयार्ह, विवेकाह, व्युत्सर्हि, तपार्ह, छेदार्ह, मूलार्ह, अनवस्थाप्यार्ह और पारांचिकार्ह ।
[९६३] तप दो प्रकार का कहा गया है । यथा बाह्य और आभ्यन्तर । (भगवन् !) वह बाह्य तप किस प्रकार का है ? (गौतम !) छह प्रकार का है ।
[९६४] अनशन, अवमौदर्य, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता ।
[९६५] भगवन् ! अनशन कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का-इत्वरिक और यावत्कथिक । भगवन् ! इत्वरिक अनशन कितने प्रकार का कहा है ? अनेक प्रकार का यथा