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भगवती - २०/-/६/७८९
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इसी प्रकार सनत्कुमार - माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके पुनः रत्नप्रभा से लेकर यावत् अधः सप्तमपृथ्वी तक उपपात कहने चाहिए । इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक पुनः अधः सप्तमपृथ्वी तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए । इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्र कल्प, महाशुक्र और सहस्त्रार कल्प, सहस्त्रार और आनत-प्राणत कल्प, आनत-प्राणत और आरण- अच्युत कल्प, आरणअच्युत और ग्रैवेयक विमानों, ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों एवं अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के अन्तराल में मरणसमुद्घातपूर्वक पुनः अधः सप्तमपृथ्वी तक कहना ।
[७९०] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? गौतम ! शेष समग्र पृथ्वीकायिक के समान । इसी प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक उपपात जानना । इसी प्रकार यावत् तमः प्रभा और अधः सप्तमा के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक अप्कायिक रूप से उपपात जानना ।
भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार - माहेन्द्र कल्प के बीच में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभा - पृथ्वी में घनोदधि-वलयों में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? शेष सब पृथ्वीकायिक के समान जानना चाहिए । इस प्रकार इन अन्तरालों में मरणसमुद्घात को प्राप्त अप्कायिक जीवों का अधः सप्तमपृथ्वी तक के घनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उपपात कहना चाहिए । इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमान और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बीच यावत् अप्कायिक के रूप में उपपात जानना ।
[ ७९१] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? गौतम ! सत्तरहवें शतक के दसवें उद्देशक समान यहाँ भी कहना । विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वीयों के अन्तरालों में मरणसमुद्घातपूर्वक कहना चाहिये । इस प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके जो वायुकायिक जीव अधः सप्तमपृथ्वी में घनवात और तनुवात तथा घनवातवलयों और तनुवातवलयों में वायुकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, इत्यादि सब कथन पूर्ववत्, यावत्- 'इस कारण उत्पन्न होते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है
शतक - २० उद्देशक - ७
[७९२] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का, यथा - जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध । भगवन् ! नैरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार वैमानिकों तक ।
भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का । यथा जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध । भगवन् ! नैरयिकों के ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त । इसी प्रकार