SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष; इसके भी १६ भंग है । इस प्रकार बादर परिणाम वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के १२९६ भंग हैं । [७८८] भगवन् ! परमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथाद्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु । भगवन् ! द्रव्यपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा-अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य | भगवन् ! क्षेत्रपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा-अनर्द्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य । भगवन् ! कालपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा-अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श । भगवन् ! भावपरमाणु कितने प्रकार का है ? गौतम ! चार प्रकार का, यथा-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। शतक-२० उद्देशक-६ [७८९] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभापृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, विशेष यह है कि वहाँ पृथ्वीकायिक 'सम्प्राप्त करते हैं,-पुद्गल-ग्रहण करते हैं-ऐसा कहा है, और यहाँ 'आहार करते हैं'-ऐसा कहना । शेष सब पूर्ववत् । भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके ईशानकल्प में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न हो कर पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक कहना । भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? पूर्ववत् कहना । इसी क्रम से यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में (पूर्ववत्) उपपात कहने चाहिए । भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है, अथवा पहले आहार करके फिर उत्पन्न होता है । गौतम ! पूर्ववत् । यावत् इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है, इत्यादि उपसंहार तक कहना चाहिए । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, सौधम-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले यावत् पीछे उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उपपात कहने चाहिए ।
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy