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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
में, श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत्, ऊर्ध्वजानु यावत् तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ।
एक दिन वे अन्यतीर्थिक, श्री गौतम स्वामी के पास आकर कहने लगे-आर्य ! तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इस पर गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा-“हे आर्यो ! किस कारण से हम तीन करण, तीन योग से असंयत, अविरत, यावत एकान्त बाल हैं ।" तब वे अन्यतीर्थिक, भगवान गौतम से कहने लगे-हे आर्य! तुम गमन करते हुए जीवों को आक्रान्त करते हो, मार देते हो, यावत्-उपद्रवित कर देते हो । इसलिए प्राणियों को आक्रान्त यावत् उपद्रुत करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हो । यह सुनकर गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा-आर्यो ! हम गमन करते हुए न तो प्राणियों को कुचलते हैं, न मारते हैं और न भयाक्रान्त करते हैं, क्योंकि आर्यो ! हम गमन करते समय काया, योग को और धीमी-धीमी गति को ध्यान में रख कर देखभाल कर विशेष रूप से निरीक्षण करके चलते हैं । अतः हम देख-देख कर एवं विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए चलते हैं, इसलिए हम प्राणियों को न तो दबाते-कुचलते हैं, यावत् न उपद्रवित करते हैं । इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त न करते हुए, यावत् पीड़ित न करते हुए हम यावत् एकान्त पण्डित हैं । हे आर्यो ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो ।
इस पर वे अन्यतीर्थिक भगवान गौतम से इस प्रकार बोले-आर्य! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध से यावत् एकान्त बाल हैं ? तब भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम चलते हुए प्राणियों को आक्रान्त करते हो, यावत् पीड़ित करते हो । जीवों को आक्रान्त करते हुए यावत् पीड़ित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर दिया । तत्पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर के समीप पहुँचे और उन्हें वन्दन-नमस्कार करके न तो अत्यन्त दूर और न अतीव निकट यावत् पर्युपासना करने लगे । श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को अच्छा कहा, तुमने उन अन्यतीर्थिकों को यथार्थ कहा । गौतम ! मेरे बहुत-से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं, जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं । जैसा कि तुमने उन अन्यतीर्थिकों को ठीक कहा; उन अन्यतीर्थिकों को बहुत ठीक कहा ।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट होकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार कर पूछा
[७५१] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जानता-देखता है अथवा नहीं जानता नहीं देखता है ? गौतम ! कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं, और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नही । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य द्विप्रदेशी स्कन्ध को जानता-देखता है, अथवा नहीं जानता, नहीं देखता है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक कहना | भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानता देखता है ? कोई जानता है और देखता है, कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं; कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं ।