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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और न अतिनिकट और न अतिदूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने मद्रुक श्रमणोपासक तथा उस परिषद् को धर्मकथा कही । यावत् परिषद् लौट गई । तत्पश्चात् मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् धर्मोपदेश सुना, और उसे अवधारण करके अतीव हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । फिर उसने भगवान् से प्रश्न पूछे, अर्थ जाने, और खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया यावत् अपने घर लौट गया ।
गौतम स्वामी ने वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-'भगवन् ! क्या मद्रुक श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करने में समसर्थ है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इत्यादि सब वर्णन शंख श्रमणोपासक के समान । यावत्-अरुणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न होकर, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा ।
[७४५] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव, हजार रूपों की विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है ? हां, गौतम ! समर्थ है । भगवन् ! वैक्रियकृत वे शरीर, एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, या अनेक जीवों के साथ सम्बद्ध ? गौतम ! एक ही जीव से सम्बद्ध होते हैं, अनेक जीवो के साथ नहीं । भगवन् ! उन शरीरों के बीच का अन्तराल-भाग क्या एक जीव से सम्बद्ध होता है, या अनेक जीवों से? गौतम! वह एक ही जीव से सम्बद्ध होता है, अनेक जीवों से सम्बद्ध नहीं ।
भगवन् ! कोई पुरुष उन वैक्रियकृत शरीरों के अन्तरालों को अपने हाथ या पैर से स्पर्श करता हुआ, यावत् तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन करता हुआ कुछ भी पीड़ा उत्पन्न कर सकता है ? गौतम ! आठवें शतक के तृतीय उद्देशक के अनुसार समझना; यावत्-उन पर शस्त्र नहीं लग (चल) सकता।
[७४६] भगवन् ! क्या देवों और असुरों में देवासुर-संग्राम होता है ? हाँ, गौतम ! होता है । भगवन् ! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने पर कौन-सी वस्तु, उन देवों के श्रेष्ठ प्रहरण के रूप में परिमत होती है ? गौतम ! वे देव, जिस तृण, काष्ठ, पत्ता या कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों के शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है । भगवन् ! जिस प्रकार देवों के लिए कोई भी वस्तु स्पर्शमात्र से शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है, क्या उसी प्रकार असुरकुमारदेवों के भी होती है ? गौतम ! उनके लिए यह बात शक्य नहीं है । क्योंकि असुरकुमारदेवों के तो सदा वैक्रियकृत शस्त्ररत्न होते हैं।
[७४७] भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न देव लवणसमुद्र के चारों ओर चक्कर लगाकर शीघ्र आने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! समर्थ हैं । भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुखी देव धातकीखण्ड द्वीप के चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र आने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वे समर्थ हैं । भगवन् ! क्या इसी प्रकार वे देव रुचकवर द्वीप तक चारों ओर चक्कर लगा कर आने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! समर्थ हैं । इससे आगे के द्वीप-समुद्रों तक देव जाता है, किन्तु उसके चारों ओर चक्कर नहीं लगाता ।
[७४८] भगवन् ! क्या इस प्रकार के भी देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक सौ, दो सौ या तीन सौ और उत्कृष्ट पांच सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! क्या ऐसे देव भी हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक हजार, दो हजार या तीन हजार और