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भगवती-१८/-/७/७४४
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उन अन्यतीर्थिकों के निकट से होकर जाने लगा ।
___ तभी उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को अपने निकट से जाते हुए देखा । उसे देखते ही उन्होंने एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा–देवानुप्रियो ! यह मद्रुक श्रमणोपासक हमारे निकट से होकर जा रहा है । हमें यह बात अविदित है; अतः देवानुप्रियो ! इस बात को मद्रुक श्रमणोपासक से पूछना हमारे लिए श्रेयस्कर है । फिर उन्होंने मद्रुक श्रमणोपासक से पूछाहे मद्रुक ! बात ऐसी है कि तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं, इत्यादि सारा कथन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के समान समझना, यावत्-'हे मद्रुक ! यह बात कैसे मानी जाए ?' यह सुन कर मद्रुक श्रमणोपासक ने कहा यदि वे धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं तभी उस पर से हम उन्हें जानते-देखते हैं; यदि वे कार्य न करते तो कारणरूप में हम उन्हें नहीं जानते-देखते । इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक से कहा कि हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि तु इस तत्त्व को न तो जानता है और न प्रत्यक्ष देखता है ।
तभी मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् ! यह ठीक है न कि हवा बहती है ? हाँ, यह ठीक है । हे आयुष्मन् ! क्या तुम बहती हुई हवा का रूप देखते हो? यह अर्थ शक्य नहीं है । आयुष्मन् ! नासिका के सहगत गन्ध के पुद्गल हैं न ? हाँ, हैं । आयुष्मन् ! क्या तुमने उन घ्राण सहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? यह बात भी शक्य नहीं है । आयुष्मन् क्या अरणि की लकड़ी के साथ में रहा हुआ अग्निकाय है ? हाँ, है । आयुष्मन् ! क्या तुम अरणि की लकड़ी में रही हुई उस अग्नि का रूप देखते हो? यह बात तो शक्य नहीं है | आयुष्मन् ! समुद्र के उस पार रूपी पदार्थ हैं न ? हाँ, हैं । आयुष्मन् ! क्या तुम समुद्र के उस पार रहे हुए पदार्थों के रूप को देखते हो ? यह देखना शक्य नहीं है | आयुष्मन् ! क्या देवलोकों में रूपी पदार्थ हैं ? हाँ, हैं । आयुष्मन् ! क्या तुम देवलोकगत पदार्थों के रूपों को देखते हो? यह बात शक्य नहीं है । इसी तरह, हे आयुष्मन् ! यदि मैं, तुम, या अन्य कोई भी छद्मस्थ मनुष्य, जिन पदार्थों को नहीं जानता या नहीं देखता, उन सब का अस्तित्व नहीं होता, ऐसा माना जाए तो तुम्हारी मान्यतानुसार लोक में बहुत-से पदार्थों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, यों कहकर मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों को प्रतिहत कर दिया । उन्हें निरुत्तर करके वह गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट आया और पांच प्रकार के अभिगम से श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में पहुँच कर यावत् पर्युपासना करने लगा।
श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को जो उत्तर दिया, वह समीचीन है, मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को यथार्थ उत्तर दिया है । हे मद्रुक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे तथा बिना सुने किसी अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, असम्मत एवं अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न या विवेचन का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, बतलाता है यावत् उपदेश देता है, वह अरहन्त भगवन्तों की आशातना में प्रवृत्त होता है, वह अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म की, केवलियों की तथा केवलि-प्ररूपित धर्म की भी आशातना करता है । हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को इस प्रकार का उत्तर देकर बहुत अच्छा कार्य किया है । मद्रुक ! तुमने बहुत उत्तम कार्य किया, यावत् इस प्रकार का उत्तर दिया ।
श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् मद्रुक श्रमणोपासक ने