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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
हैं । केवली जब भी बोलते हैं, तो असावध और दूसरों का उपघात न करने वाली, ऐसी दो भाषाएँ बोलते हैं । -सत्यभाषा या व्यवहार भाषा ।
[७४३] भगवन् ! उपधि कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! तीन प्रकार की । यथाकर्मोपधि, शरीरोपधि और बाह्यभाण्डमात्रोपकरणउपधि । भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार की उपधि होती है ? गौतम ! दो प्रकार की, कर्मोपधि और शरीरोपधि । एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक तक शेष सभी जीवों के तीन प्रकार की उपधि होती है । एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार की उपधि होती है यथा-कर्मोपधि और शरीरोपधि । भगवन् ! (प्रकारान्तर से) उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! तीन प्रकार की यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र । इसी प्रकार नैरयिकों के भी तीन प्रकार की उपधि होती है । इसी प्रकार अवशिष्ट सभी जीवों के, यावत् वैमानिकों तक के तीनों प्रकार की उपधि होती है ।
भगवन ! परिग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम! तीन प्रकार का, यथा-कर्मपरिग्रह, शरीर-परिग्रह और बाह्यभाण्डमात्रोपकरण-परिग्रह । भगवन् ! नैरयिकों में कितने प्रकार का परिग्रह कहा गया है ? गौतम ! उपधि अनुसार परिग्रह के विषय में जानना ।
भगवन् ! प्रणिधान कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का मनःप्रणिधान, वचनप्रणिधान और कायप्रणिफान । भगवन् ! नैरयिको के कितने प्रणिधान हैं ? गौतम ! तीनों । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए । भंते ! पृथ्वीकायिक जीवों के प्रणिधान के विषय में प्रश्न ? गौतम ! इनमें एकमात्र कायप्रणिधान ही होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों तक जानना । भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के विषय में प्रश्न ? गौतम ! दो प्रकार का वचनप्रणिधान और कायप्रणिधान । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना । शेष सभी जीवों के तीनों प्रकार के प्रणिधान होते हैं ।
भगवन् ! दुष्प्रणिधान कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का-मनो-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान और काय-दुष्प्रणिधान । प्रणिधान के अनुसार दुष्प्रणिधान के विषय में भी कहना । भगवन् ! सुप्रणिधान कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का मनःसुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान और कायसुप्रणिधान । भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार का सुप्रणिधान है ? गौतम ! तीनों प्रकार के । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । तत्पश्चात् भगवान् महावीर ने यावत् बाह्य जनपदों में विहार किया ।
[७४४] उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था । (वर्णन) । वहाँ गुणशील नामक उद्यान था । (वर्णन) । यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्ट था । उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा-कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के अनुसार, यावत्-'यह कैसे माना जा सकता है ?' यहाँ तक समझना चाहिए । उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से पराभूत न होने वाला, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, यावत् मद्रुक नामक श्रमणोपासक रहता था । तभी अन्यदा किसी दिन पूर्वानुपूर्वीक्रम से विचरण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे । वे समवसरण में विराजमान हुए । परिषद् यावत् पर्युपासना करने लगी । मद्रुक श्रमणोपासक ने जब श्रमण भगवान् महावीर के आगमन का यह वृत्तान्त जाना तो वह हृदय में अतीव हर्षित एवं यावत् सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नान किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने घर से निकला । चलते-चलते वह