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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
महावीर से इस प्रकार पूछा-भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य और प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक तथा पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, एवं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीररहित जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्था-प्रतिपन्न अनगार और सभी स्थूलकाय धारक कलेवर, ये सब (मिल कर) दो प्रकार के हैं-जीवद्रव्य रूप और अजीवद्रव्य रूप । प्रश्न यह है कि क्या ये सभी जीवों के परिभोग में आते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से लेकर सर्वस्थूलकायधर कलेवर तक जो जीवद्रव्यरूप
और अजीवद्रव्यरूप हैं, इनमें से कई तो जीवों के परिभोग में आते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं आते ।
भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी; ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप
और अजीवद्रव्यरूप-दो प्रकार के हैं; ये सब, जीवों के परिभोग में आते हैं तथा प्राणातिपातविरमण, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् परमाणु-पुद्गल एवं
शैलेशीअवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप-दो प्रकार के हैं । ये सब जीवों के परिभोग में नहीं आते । इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि यावत् परिभोग में नहीं आते हैं ।
[७३४] भगवान् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! चार प्रकार का, इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र का कषाय पद, लोभ के वेदन द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करेंगे, तक कहना चाहिए ।
भगवन् ! युग्म (राशियाँ) कितने कहे गए हैं ? गौतम ! चार हैं, यथा-कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज । भगवन् ! आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! जिस राशि में से चार-चार निकालने पर, अन्त में चार शेष रहें, वह राशि है-'कृतयुग्म' । जिस राशि में से चारचार निकालते हुए अन्त में तीन शेष रहें, वह राशि 'त्र्योज' कहलाती है । जिस राशि में से चारचार निकालने पर अन्त में दो शेष रहें, वह राशि 'द्वापरयुग्य' कहलाती है और जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में एक शेष रहे, वह राशि ‘कल्योज' कहलाती है । इस कारण से ये राशियाँ यावत् 'कल्योज' कही जाती हैं ।
भगवन् ! नैरयिक क्या कृतयुग्म हैं, यावत् कल्योज हैं ? गौतम ! वे जघन्यपद में कृतयुग्म हैं, उत्कृष्टपद में त्र्योज हैं तथा अजघन्योत्कृष्ट पद में कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक (कहना चाहिए ।) भगवन् ! वनस्पतिकायिक कृतयुग्म हैं, यावत् कल्योज रूप हैं ? वे जघन्यपद और उत्कृष्टपद की अपेक्षा भी अपद हैं । अजघन्योत्कृष्टपद की अपेक्षा कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज रूप हैं ।
भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के विषय में भी इसी प्रकार का प्रश्न है ? गौतम ! (द्वीन्द्रियजीव) जघन्यपद में कृतयुग्म हैं और उत्कृष्टपद में द्वापरयुग्म हैं, किन्तु अजघन्योत्कृष्ट पद में कदाचित् कृतयुग्म, यावत् कदाचित् कल्योज हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कहना चाहिए । शेष एकेन्द्रियों की वक्तव्यता, द्वीन्द्रिय की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए । पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से लेकर वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के समान (जानना चाहिए ।) सिद्धों का कथन वनस्पतिकायिकों के समान जानना चाहिए ।