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भगवती-१८/-/३/७२९
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करते हैं | उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं; यथा-उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं । [जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं ।]
[७३०] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार काद्रव्यबन्ध और भावबन्ध । भगवन् ! द्रव्यबन्ध कितने प्रकार का है ? माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का यथा प्रयोगबन्ध और विस्त्रसाबन्ध । भगवन् ! विस्त्रसाबन्ध कितने प्रकार का है ? माकन्दिकपुत्र! दो प्रकार का यथा-सादि विस्त्रसाबन्ध और अनादि विस्त्रसाबन्ध । भगवन् ! प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का यथा-शिथिलबन्धनबन्ध
और गाढ़ बन्धनबन्ध । भगवन् ! भावबन्ध कितने प्रकार का है ? माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध ।।
भगवन ! नैरयिक जीवों का कितने प्रकार का भावबन्ध कहा गया है ? माकन्दिकपुत्र! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इसी प्रकार वैमानिकों तक (कहना चाहिए ।) भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिकपुत्र! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । भगवन् ! नैरयिक जीवों के ज्ञानावरणीयकर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का, यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । ज्ञानावरणीयकर्म दण्डक अनुसार अन्तरायकर्म तक (दण्डक) कहना चाहिए ।
[७३१] भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? हाँ, माकन्दिकपुत्र ! है । भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? माकन्दिकपुत्र! जैसे कोई पुरुष धनुष को ग्रहण करे, फिर वह बाण को ग्रहण करे और अमुक प्रकार की स्थिति में खड़ा रहे, तत्पश्चात् बाण को कान तक खींचे और अन्त में, उस बाण को आकाश में ऊँचा फैंके, तो हे माकन्दिकपुत्र ! आकाश में ऊँचे फैंके हए उस बाण के कम्पन में भेद है, यावतवह उस-उस रूप में परिणमन करता है । उसमें भेद है न ? हाँ भगवन् ! हैं । हे माकन्दिकपुत्र! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि उस कर्म के उस-उस रूपादि-परिणाम में भी भेद है । भगवन् ! नैरयिकों ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेंगे, क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना ।
[७३२] भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकाल में आहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता है ? माकन्दिकपुत्र ! असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण होता है और अनन्तवें भाग का निर्जरण होता है । भगवन् ! क्या कोई जीव उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोने में समर्थ है ? माकन्दिकपुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । आयुष्मन् श्रमण ! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-१८ उद्देशक-४ [७३३] उस काल और उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने भगवान्