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________________ १६६ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद है । यह कथन सत्य है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कहकर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन - नमस्कार किया, और वे जहाँ माकन्दीपुत्र अनगार थे, वहाँ आए । उन्हें वन्दन- नमस्कार किया । फिर उन्होंने उनसे सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की । [७२९] तत्पश्चात् माकन्दिकपुत्र अनगार अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान् महावीर के पास आए । उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा'भगवन् ! सभी कर्मों को वेदते हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को वेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, निर्जरा करते हुए, मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा के पुद्ग हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ? हाँ, माकन्दिकपुत्र ! तथाकथित भावितात्मा अनगार के यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों के अन्यत्व और नानात्व को जानतादेखता है ? हे माकन्दिकपुत्र ! प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम इन्द्रियोद्देशक के अनुसार वैमानिक तक जानना चाहिए । यावत्- इनमें जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते, देखते और आहाररूप में ग्रहण करते हैं, इस कारण से हे माकन्दिकपुत्र ! यह कहा जाता है कि... यावत् जो उपयोगरहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, किन्तु उन्हें आहरण- ग्रहण करते हैं, इस प्रकार निक्षेप कहना चाहिए । भगवन् ! क्या नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं ? हाँ, करते हैं, इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों तक जानना । भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते देखते हैं और ग्रहण करते हैं, अथवा वे नहीं जानते-देखते, और नहीं आहरण करते हैं ? गौतम ! कई मनुष्य उन पुद्गलों को जानतेदेखते हैं और ग्रहण करते हैं, कई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु उन्हें ग्रहण करते हैं । भगवन् ! आप यह किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । उनमें जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं । जो संज्ञीभूत मनुष्य हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा-उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । उनमें जो उपयोगरहित हैं वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं । मगर जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानतेदेखते हैं, और ग्रहण करते हैं । इस कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि कई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु आहाररूप से ग्रहण करते हैं, तथा कई जानते देखते हैं और ग्रहण करते हैं ।' वाणव्यन्तर और ज्योतिष्कदेवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए । भगवन् ! वैमानिकदेव उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते और उनका आहरण करते हैं या नहीं करते हैं ? गौतम ! मनुष्यों के समान समझना । वैमानिक देव दो प्रकार के हैं । यथामायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि- उपपन्नक । जो मायी - मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं, तथा जो अमायी- सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं, यथा- अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । जो अनन्तरोपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं तथा जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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