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भगवती - १६/-/८/६८३
कहने चाहिए । रत्नप्रभापृथ्वी के चार चरमान्तों के अनुसार शर्कराप्रभापृथ्वी के भी चार चरमान्तों को कहना तथा रत्नप्रभापृथ्वी के अधस्तन चरमान्त के समान, शर्कराप्रभापृथ्वी के उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त जानना । इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के चरमान्तों में कहना ।
इसी प्रकार सौधर्मदेवलोक से लेकर अच्युतदेवलोक तक कहना चाहिए । ग्रैवेयकविमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । विशेषता यह है कि इनमें उपरितन और अधस्तन चरमान्तों के विषय में, जीवदेशों के सम्बन्ध में पंचेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना चाहिए | शेष पूर्ववत् । जिस प्रकार ग्रैवेयकों के चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार अनुत्तरविमानों तथा ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए ।
[६८४] भगवन् ! क्या परमाणु- पुद्गल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में, 'पश्चिमीय चरमान्त से पूर्वीय चरमान्त में, दक्षिणी चरमान्त से उत्तरीय चरमान्त में, उत्तरीय चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त में, ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त में और नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है ? हाँ, गौतम ! परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में यावत् नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है ।
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[६८५] भगवन् ! वर्षा बरस रही है अथवा नहीं बरस रही है ? यह जानने के लिए कोई पुरुष अपने हाथ, पैर, बाहु या ऊरु को सिकोड़े या फैलाए तो उसे कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? गौतम ! उसे कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं ।
[६८६] भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न देव लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् ऊरु को सिकोड़ने और पसारने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! जीवों के अनुगत आहारोपचित पुद्गल, शरीरोपचित पुद्गल और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गतिपर्याय कही गई है । अलोक में न तो जीव हैं और न ही पुद्गल हैं । इसी कारण । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार |
शतक- १६ उद्देशक - ९
[६८७] भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की सुधर्मा सभा कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों को उल्लंघ कर इत्यादि, चमरेन्द्र की वक्तव्यता अनुसार कहना; यावत् ( अरुणवरद्वीप की बाह्य वेदिका से अरुणवर - द्वीप समुद्र में ) बयालीस हजार योजन अवगाहन करने के बाद वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पातपर्वत है । वह उत्पात पर्वत १७२१ योजन ऊँचा है । उसका शेष सभी परिमाण तिगिञ्छकूट पर्वत के समान । उसके प्रासादावतंसक का परिमाण तथा बलीन्द्र के परिवार सहित सपरिवार सिंहासन का अर्थ भी उसी प्रकार जानना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ रुचकेन्द्र की प्रभा वाले कुमुद आदि हैं । यावत् वह बलिचंचा राजधानी तथा अन्यों का नित्य आधिपत्य करता हुआ विचरता है । उस रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत के उत्तर से छह सौ पचपन करोड़ पैंतीस लाख पचास हजार योजन तिरंछा जाने पर नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी में पूर्ववत् यावत् चालीस हजार योजन जाने के पश्चात् वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की बलिचंचा नामक राजधानी है । उस राजधानी का विष्कम्भ