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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
हाँ, शक्र ! वह गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है । देवेन्द्र देवराज शक्र ने इन उत्क्षिप्त आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे, और फिर भगवान् को उत्सुकतापूर्वक वन्दन करके उसी दिव्य याव - विमान पर चढ़ कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया ।
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[६७४] भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करके पूछाभगवन् ! अन्य दिनों में देवेन्द्र देवराज शक्र ( आता है, तब ) आप देवानुप्रिय को वन्दन - नमस्कार करता है, आपका सत्कार - सन्मान करता है, यावत् आपकी पर्युपासना करता है; किन्तु भगवन् ! आज तो देवेन्द्र देवराज शक्र आप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछ कर और उत्सुकतापूर्वक वन्दन- नमस्कार करके शीघ्र ही चला गया, इसका क्या कारण है ? श्रमण भगवान् महावीर ने कहा- गौतम ! उस काल उस समय में महाशुक्र कल्प के 'महासामान्य' नामक विमान में महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव, एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए । उनमें से एक मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अमायीसम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुआ । एक दिन उस मायीमिथ्यादृष्टि देव ने अमायीसम्यग्दृष्टि देव से कहा- 'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' नहीं कहलाते, 'अपरिणत' कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं ।' इस पर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव से कहा - 'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं, इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं अपरिणत नहीं ।' इस प्रकार कहकर अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने मायीमिथ्यादृष्टि देव को पराजित किया । पश्चात् अमायीसम्यग्दृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर अवधिज्ञान से मुझे देखा, फिर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, उल्लूकतीर नामक नगर के बाहर एकजम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर यथायोग्य अवग्रह लेकर विचरते हैं । अतः मुझे श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार यावत् पर्युपासना करके यह तथारूप प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान, यावत् निर्घोष - निनादित ध्वनिपूर्वक, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उल्लूकतीर के एकजम्बूक उद्यान में मेरे पास आने के लिए उसने प्रस्थान किया । उस समय उस देव की तथाविध दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजः प्रभा को सहन नहीं करता हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र मुझसे संक्षेप में आठ प्रश्न पूछ कर शीघ्र ही वन्दना - नमस्कार करके यावत् चला गया ।
नगर
[६७५] जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भगवान् गौतम स्वामी से यह बात कह रहे थे, इतने में ही वह देव शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा । उस देव ने आते ही श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन - नमस्कार किया और पूछा-भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायीमिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा- परिणमते हुए पुद्गल अभी ‘परिणत' नहीं कहे जा कर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिण रहे हैं । इसलिए वे 'परिणत' नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं । तब मैंने उस मायी मिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहा- 'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं । भगवन् ! इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ?' श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा - 'गंगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं,