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भगवती-१६/-/५/६७५
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परिणत हैं । यह अर्थ सत्य है ।'
तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यह उत्तर सुनकर और अवधारण करके वह गंगदत्त देव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । फिर वह न अतिदूर और न अतिनिकट बैठ कर यावत् भगवान् की पर्युपासना करने लगा । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को ओर महती परिषद् को धर्मकथा कही, यावत्-जिसे सुनकर जीव आराधक बनता है । उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर से धर्मदेशना सुनकर और अवधारण करके हृष्ट-तुष्ट हुआ और फिर उसने खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक ? हे गंगदत्त ! सूर्याभदेव के समान (समझना ।) फिर गंगदत्त देव ने भी सूर्याभदेववत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि प्रदर्शित की और फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया ।
[६७६] भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से यावत् पूछा-'भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' गौतम ! यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई । यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (तक समझना चाहिए ।) (गौतम-) अहो ! भगवन् ! गंगदत्त देव महर्द्धिक यावत् महासुखसम्पन्न है !
भगवन् ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति कैसे उपलब्ध हुई ? यावत् जिससे गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि उपलब्ध, प्राप्त और यावत् अभिसमन्वागत की ? श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-“गौतम ! बात ऐसी है कि उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर था । वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । उस हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त गाथापति रहता था । वह आढ्य यावत् अपराभूत था । उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी आकाशगत चक्रसहित यावत् देवों द्वारा खींचे जाते हुए धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगण से संपरिवृत्त हो कर अनुक्रम से विचरते हुए और ग्रामानुग्राम जाते हुए, यावत् मुनिसुव्रत अर्हन्त यावत् सहस्त्राम्रवन उद्यान में पधारे, यावत् यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विचरने लगे । परिषद् वन्दना करने के लिए आई यावत् पर्युपासना करने लगी।
जब गंगदत्त गाथापति ने भगवान् श्री मुनिसुव्रतस्वामी के पदार्पण की बात सुनी तो वह अतीव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने स्नान और बलिकर्म किया, यावत् शरीर को अलंकृत करके वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ सहस्राभ्रवन उद्यान में अर्हत् भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचा । तीर्थंकर मुनिसुव्रत प्रभु को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना विधि से पर्युपासना करने लगा । अर्हन्त मुनिसुव्रतस्वामी ने गंगदत्त गाथापति को और उस महती परिषद् को धर्मकथा कही । यावत् परिषद् लौट गई । तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी से धर्म सुनकर और अवधारण करके गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट होकर खड़ा हुआ और भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् आपने जो कुछ कहा, उस पर श्रद्धा करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दूंगा, फिर आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित यावत् प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' हे देवानुप्रिय ! जिस