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भगवती-१६/-/४/६७२
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जर्जरित हो गया है । चमड़ी शिथिल होने से सिकुड़ कर सलवटों से व्याप्त है । दांतों की पंक्ति में बहुत-से दांत, गिर जाने से थोड़े-से दांत रह गए हैं, जो गर्मी से व्याकुल है, प्यास से पीड़ित है, जो आतुर, भूखा, प्यासा, दुर्बल और क्लान्त है । वह वृद्ध पुरुष एक बड़ी कोशम्बवृक्ष की सूखी, टेढ़ी, मेढ़ी, गाँठगठीली, चिकनी, बांकी, निराधार रही हुई गण्डिका पर एक कुण्ठित कुल्हाड़े से जोर-जोर से शब्द करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़े नहीं कर सकता, इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिक जीवों ने अपने पाप कर्म गाढ़ किये हैं, चिकने किये हैं, इत्यादि छठे शतक के अनुसार यावत्-वे महापर्यवसान वाले नहीं होते ।
जिस प्रकार कोई पुरुष एहरन पर घन की चोट मारता हुआ, जोर-जोर से शब्द करता हुआ, (एहरन के स्थूल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार नैरयिक जीव भी गाढ़ कर्म वाले होते हैं, इसलिए वे यावत् महापर्यवसान वाले नहीं होते । जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण हैं, बलवान् है, यावत् मेधावी, निपुण और शिल्पकार है, वह एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठित, चिकनाई से रहित, सीधी और आधार पर टिकी गण्डिका पर तीक्ष्ण कुल्हाड़े से प्रहार करे तो जोर-जोर से शब्द किये बिना ही आसानी से उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है । इसी प्रकार हे गौतम ! जिन श्रमण निर्ग्रन्थों ने अपने कर्म यथा-स्थूल, शिथिल यावत् निष्ठित किये हैं, यावत् वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं । हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे हुए घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । जैसे कोई पुरुष, पानी की बून्द को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के भी यथाबादर कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । छठे शतक के अनुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं । इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, इत्यादि, यावत् उतने कर्मों का नैरयिक जीव कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१६ उद्देशक-५ [६७३] उस काल उस समय में उल्लूकतीर नामक नगर था वहाँ एकजम्बूक नाम का उद्यान था । उसका वर्णन पूर्ववत् । उस काल उस समय श्रमम महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् ने पर्युपासना की । उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि शक्र इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक में कथित वर्णन के अनुसार दिव्य यान विमान से वहाँ आया और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार कर उसने इस प्रकार पूछा
भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना यहां आने में समर्थ है ? हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं । भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ है ? भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव क्या बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके गमन करने, बोलने, या उत्तर देने या आँखें खोलने और बन्द करने, या शरीर के अवयवों को सिकोड़ने और पसारने में, या स्थान, शय्या, निषद्या को भोगने में, तथा विक्रिया करने या परिचारणा (विषयभोग) करने में समर्थ है ?