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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्रकट करता हुआ विचरा हूँ । मैं मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवाद-कर्ता और अपकीर्तिकर्ता हूँ । मैं अत्यधिक असद्भावनापूर्ण मिथ्यात्वाभिनिवेश से, अपने आपको, दूसरों को तथा स्वपर-उभय को व्युद्ग्राहित करता हुआ, व्युत्पादित करता हुआ विचरा, और फिर अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर, पित्तज्वराक्रान्त तथा दाह से जलता हुआ सात रात्रि के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में ही काल करूंगा । वस्तुतः श्रमण भगवान् महावीर ही जिन हैं, और जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करते हैं |
(गोशालक ने अन्तिम समय में) इस प्रकार सम्प्रेक्षण किया । फिर उसने आजीविक स्थविरों को बुलाया, अनेक प्रकार की शपथों से युक्त करके इस प्रकार कहा-'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, फिर भी जिनप्रलापी तथा जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा । मैं वही मंखलिपुत्र गोशालक एवं श्रमणों का घातक है, यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊंगा। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं, यावत् स्वयं को जिन शब्द से प्रकट करते हुए विहार करते हैं । अतः हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त जान कर मेरे बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुंह में थूकना । तदनन्तर शृंगाटक यावत् राजमार्गों में इधर-उधर घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना-'देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, किन्तु वह जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकाशित करता हुआ विचरा है । यावत् श्रमण भगवान् महावीर ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं । इस प्रकार वहती अऋद्धि पूर्वक मेरे मृत शरीर का नीहरण करना; यों कहकर गोशालक कालधर्म को प्राप्त हुआ ।
[६५४] तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म-प्राप्त हुआ जानकर हालाहला कुम्भारिन की दूकान के द्वार बन्द कर दिये । फिर हालाहला कुम्भारिन की दूकान के ठीक बीचों बीच श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया । फिड़ मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर को मूंज की रस्सी से बाँधा । तीन बार उसके मुख में थूका । फिर उक्त चित्रित की हुए श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों पर इधर-उधर घसीटते हुए मन्द-मन्द स्वर से उद्घोषणा करते हुए यावत् पूर्ववत् कथन करना । इस प्रकार शपथ से मुक्त हुए । इसके पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक के प्रति पूजा-सत्कार (की भावना) को स्थिरीकरण करने के लिए मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर में बंधी मूंज की रस्सी खोल दी और हालाहला कुंभारिन की दूकान के द्वार भी खोल दिये । फिर मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से नहलाया, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णनानुसार यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार-समुदाय के साथ मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया ।
[६५५] तदनन्तर किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे । उस काल उस समय मेढिकग्राम नगर था । उस के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था । यावत् पृथ्वी-शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था । वह श्याम, श्याम प्रभा वाला, यावत् महामेघ के समान था, पत्रित, पुष्पित, फलित और हरियाली से अत्यन्त लहलहाता हुआ, वनश्री से अतीव शोभायमान रहता था । उस मेंढिकग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी रहती थी । वह