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भगवती- १५/-/-/६५२
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कुम्भारिन की दूकान में आम्रफल हाथ में लिये हुए यावत् अंजलिकर्म करते हुए विचरते हैं, वह वे भगवान् गोशालक इस सम्बन्ध में इन आठ चरमों की प्ररूपणा करते हैं । यथा - चरम पान, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । हे अयंपुल ! जो ये तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी मिश्रित शीतल पानी से अपने शरीर के अवयवों पर सिंचन करते हुए यावत् विचरते हैं । इस विषय में भी वे भगवान् चार पानक और चार अपानक की प्ररूपणा करते हैं। यावत्... इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं । अतः हे अयंपुल ! तू जा और अपने इन धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक से अपने इस प्रश्न को पूछ । वह अयंपुल आजीविकोपासक हर्षित एवं सन्तुष्टहुआ और वहाँ से उठकर गोशालक मंखलिपुत्र के पास जाने लगा । तत्पश्चात् उन आजीविक स्थविरों ने उक्त आम्रफल को एकान्त में डालने का गोशालक को संकेत किया । इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने आजीविक स्थविरों का संकेत ग्रहण किया और उस आम्रफल को एकान्त में एक ओर डाल दिया ।
इसके पश्चात् अयंपुल आजीविकोपासक मंखलिपुत्र गोशलाक के पास आया और मंखलिपुत्र गोशालक की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर यावत् पर्युपासना करने लगा । गोशालक ने पूछा- 'हे अयंपुल ! रात्रि के पिछले पहर में यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् इसी से तू मेरे पास आया है, है अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ? ' ( अयंपुल ) हां, सत्य है । (गोशालक ) (हे अयंपुल !) मेरे हाथ में वह आम्र की गुठली नहीं थी, किन्तु आम्रफल की छाल थी । हल्ला का आकार कैसा होता है ? (अयंपुल) हल्ला का आकार बांस के मूल के आकार जैसा होता है । (उन्मादवश गोशालक ने कहा) 'हे वीरो ! वीणा बजाओ ! वीरो ! वीणा बजाओ ।' गोशालक से अपने प्रश्न का इस प्रकार का समाधान पा कर आजीविकोपासक अयं अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् हृदय में अत्यन्त आनन्दित हुआ । फिर उसने मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना - नमस्कार किया; कई प्रश्न पूछे, अर्थ ग्रहण किया । फिर वह उठा और पुनः मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना - नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर लौट गया ।
गोशालक ने अपना मरण (निकट) जान कर आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और कहा - हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त हुआ जान कर तुम लोग मुझे सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराना, फिर रोंएदार कोमल गन्धकाषायिक वस्त्र से मेरे शरीर को पोंछना, सरस गोशीर्ष चन्दन से मेरे शरीर के अंगों पर विलेपन करना । हंसवत् श्वेत महामूल्यवान् पटशाटक मुझे पहनाना । मुझे समस्त अलंकारों से विभूषित करना । मुझे हजार पुरुषों से उठाई जाने योग्य शिविका में बिठाना । शिबिकारूढ करके श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटक यावत् महापथों में उच्चस्वर से उद्घोषणा करते हुए कहना - यह मंखलिपुत्र गोशालक जिन जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरण कर इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर हो कर सिद्ध हुआ है, यावत् समस्त दुःखों से रहित हुआ है।' इस प्रकार ऋद्धि और सत्कार के साथ मेरे शरीर का नीहरण करना । उन आजीविक स्थविरों ने गोशालक की बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया ।
[६५३] इसके पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ । उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - 'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन - प्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को