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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
और अपक्क हो, उसे कोई मुंह में थोड़ा चबाता है या विशेष चबाता है, परन्तु उसका पानी नहीं पीता । वही सिम्बली-पानक होता है । वह शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? व्यक्ति छह महीने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महीने तक पृथ्वी-संस्तारक पर सोता है, दो महीने तक काष्ठ के संस्तारक पर सोता है, दो महीने तक दर्भ के संस्तारक पर सोता है; इस प्रकार छह महीने परिपूर्ण हो जाने पर अन्तिम रात्रि में उसके पास ये दो महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव प्रकट होते हैं, यथा-पूर्णभद्र और माणिभद्र । फिर वे दोनों देव शीतल और गीले हाथों से उसके शरीर के अवयवों का स्पर्श करते हैं । उन देवों का जो अनुमोदन करता है, वह आशीविष रूप से कर्म करता है, और जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है, और जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है । वह अग्निकाय अपने तेज से उसके शरीर को जलाता है । इस प्रकार शरीर को जला देने के पश्चात् वह सिद्ध हो जाता है; यावत् सर्व दुःखों का अन्त कर देता है । यही वह शुद्ध पानक है ।
उसी श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का आजीविकोपासक रहता था । वह ऋद्धि सम्पन्न . यावत् अपराभूत था । वह हालाहला कुम्भारिन के समान आजीविक मत के सिद्धान्त से अपनी
आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था । किसी दिन उस अयंपुल आजीविकोपासक को रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्बजागरणा करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ–'हल्ला नामक कीट-विशेष का आकार कैसा बताया गया है ?' तदनन्तर उस आजीविकोपासक अयंपुल को ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत-संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक, यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं । वे इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भारिन की दुकान में आजीविकसंघ सहित आजीविक-सिद्धान्त से अपनी
आत्मा को भावित करते हए विचरते हैं । अतः कल प्रातःकाल यावत् तेजी से जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना यावत् पर्युपासना करके ऐसा यह प्रश्न पूछना श्रेयस्कर होगा ।' दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय होने पर स्नान-बलिकर्म किया । फिर अल्पभार और महामूल्यवाले आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत कर वह अपने घर से निकला और पैदल चलकर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होता हुआ हालाहला कुम्भारिन की दुकान पर आया । मंखलिपुत्र-गोशालक को हाथ में आम्रफल लिये हुए, यावत् हालाहला कुम्भारिन को अंजलिकर्म करते हुए, मिट्टी मिले हुए शीतल जल से अपने शरीर के एवयवों को बार-बार सिंचन करते हुए देखा तो देखते ही लज्जित, उदास और वीडित हो गया और धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगा।
जब आजीविक-स्थविरों ने आजीविकोपासक अयंपुल को लज्जित होकर यावत् पीछे जाते हुए देखा, तो कहा-'हे अयंपुल ! यहाँ आओ।' आजीविक-स्थविरों द्वारा बुलाने पर अयंपुल आजीविकोपासक उनके पास आया और उन्हें वन्दना-नमस्कार करके उनसे न अत्यन्त निकट और न अत्यन्त दूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा । आजीविक-स्थविरों ने कहा-हे अयंपुल! आज पिछली रात्रि के समय यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'हल्ला' की आकृति कैसी होती है ? इसके पश्चात् हे अयंपुल ! तुझे ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मैं अपने 'धर्माचार्य...से पूछ कर निर्णय करूं, इत्यादि । ‘हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ?' (अयंपुल-) 'हाँ, सत्य है ।' (स्थविर-) हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक जो हालाहला