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________________ भगवती-१५/-/-/६५२ १२५ करके विचरण करने लगे । कितने ही ऐसे आजीविक स्थविर थे, जो मंखलिपुत्र गोशालक का आश्रय ग्रहण करके ही विचरते रहे । मंखलिपुत्र गोशालक जिस कार्य को सिद्ध करने के लिए एकदम आया था, उस कार्य को सिद्ध नहीं कर सका, तब वह चारों दिशाओं में लम्बी दृष्टि फैकता हुआ, दीर्घ और उष्ण निःश्वास छोड़ता हुआ, दाढ़ी के बालों को नोचता हुआ, गर्दन के पीछे के भाग को खुजलाता हआ, बैठक के कूल्हे के प्रदेश को ठोकता हआ, हाथों को हिलाता हआ और दोनों पैरों से भूमि को पीटता हुआ; ‘हाय, हाय ! ओह मैं मारा गया' यों बड़बड़ाता हुआ, श्रमण भगवान् महावीर के पास से, कोष्ठक-उद्यान से निकला और हालाहला कुम्भकारी की दुकान थी, वहाँ आया । वहाँ आम्रफल हाथ में लिए हुए मद्यपान करता हुआ, बार-बार गाता और नाचता हुआ, बारबार हालाहला कुम्भारिन को अंजलिकर्म करता हुआ, मिट्टी के बर्तन में रखे हुए मिट्टी मिले हुए शीतल जल से अपने शरीर का परिसिंचन करता हुआ विचरने लगा। __श्रमण भगवान महावीर ने कहा-हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरा वध करने के लिए अपने शरीर में से जितनी तेजोलेश्या निकाली थी, वह सोलह जनपदों का घात करने, वध करने, उच्छेदन करने और भस्म करने में पूरी तरह पर्याप्त थी । वे सोलह जनपद ये हैं अंग, बंग, मगध, मलयदेश, मालवदेश, अच्छ, वत्सदेश, कौत्सदेश, पाट, लाढदेश, वज्रदेश, मौली, काशी, कौशल, अवध और सुम्भुक्तर । हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक, जो हालाहला कुम्भारिन की दुकान में आम्रफल हाथ में लिए हुए मद्यपान करता हुआ यावत् बारबार अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है, वह अपने उस पाप को प्रच्छादन करने के लिए इन आठ चरमों की प्ररूपणा करता है । यथा-चरम पान, चरमगान, चरम नाट्य, चरम अंजलिकर्म, चरम पुष्कल-संवर्तक महामेघ, चरम सेचनक गन्धहस्ती, चरम महाशिलाकण्टक संग्राम और 'मैं (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थंकर होकर सिद्ध होऊँगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूंगा।' 'हे आर्यो ! गोशालक मिट्टी के बर्तन में मिट्टी-मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है; वह भी इस पाप को छिपाने के लिए चार प्रकार के पानक और चार प्रकार के अपानक की प्ररूपणा करता है । पानक क्या है ? पानक चार प्रकार का है । - गाय की पीठ से गिरा हुआ, हाथ से मसला हुआ, सूर्य के ताप से तपा हुआ और शिला से गिरा हुआ । अपानक क्या है ? अपानक चार प्रकार का है । स्थाल का पानी, वृक्षादि की छाल का पानी, सिम्बली का पानी और शुद्ध पानी । वह स्थाल-पानक क्या है ? जो पानी से भीगा हुआ स्थाल हो, पानी से भीगा हुआ वारक हो, पानी से भीगा हुआ बड़ा घड़ा हो अथवा पानी से भीगा हुआ कलश हो, या पानी से भीगा हुआ मिट्टी का बर्तन हो जिसे हाथों से स्पर्श किया जाए, किन्तु पानी पीया न जाए, यह स्थाल-पानक कहा गया है । त्वचा-पानक किस प्रकार का होता है ? जो आम्र, अम्बाङग इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवें प्रयोग पद में कहे अनुसार, यावत् बेर, तिन्दुरुक पर्यन्त हो, तथा जो तरुण एवं अपक्व हो, (उसकी छाल को) मुख में रख कर थोड़ा चूसे या विशेष रूप से चूसे, परन्तु उसका पानी न पीए । यह त्वचा-पानक कहलाता है । वह सिम्बली-पानक किस प्रकार का होता है ? जो कलाय की फली, मूंग की फली, उड़द की फली अथवा सिम्बली की फली आदि, तरुण
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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