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भगवती-१५/-/-/६५५
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आढ्य यावत् अपराभूत थी ।
किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी क्रमशः विचरण करते हुए मेढिकग्राम नगर के बाहर, जहाँ शालकोष्ठक उद्यान था, वहाँ पधारे; यावत् परिषद् वन्दना करके लौट गई । उस समय श्रमण भगवान महावीर के शरीर में महापीडाकारी व्याधि उत्पन्न हुई, जो उज्जवल यावत् दुरधिसह्य थी । उसने पित्तज्वर से सारे शरीर को व्याप्त कर लिया था, और शरीर में अत्यन्त दाह होने लगी । तथा उन्हें रक्त-युक्त दस्ते भी लगने लगीं । भगवान् के शरीर की ऐसी स्थिति जान कर चारों वर्ण के लोग इस प्रकार कहने लगे श्रमण भगवान् महावीर मंखलिपुत्र गोशालक की तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर एवं दाह से पीड़ित होकर छह मास के अन्दर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त करेंगे।
. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के एक अन्तेवासी सिंह नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । वे मालुकाकच्छ के निकट निरन्तर छठ-छठ तपश्चरण के साथ अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठा कर यावत् आतापना लेते थे । उस समय की बात है, जब सिंह अनगार ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त हो रहे थे, तभी उन्हें इस प्रकार का आत्मगत यावत् चिन्तन उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोगातंक प्रकट हुआ, जो अत्यन्त दाहजनक है, इत्यादि । तब अन्यतीर्थिक कहेंगे-'वे छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए।' इस प्रकार के इस महामानसिक मनोगत दुःख से पीड़ित बने हुए सिंह अनगार आतापनाभूमि से नीचे उतरे । फिर वे मालुकाकच्छ में आए और जोर-जोर से रोने लगे । (उस समय) श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-'हे आर्यो ! आज मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्र यावत् विनीत सिंह नामक अनगार, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना; यावत् अत्यन्त जोर-जोर से रो रहा है । इसलिए, हे आर्यो! तुम जाओ और सिंह अनगार को यहाँ बुला लाओ।
श्रमण भगवान महावीर ने जब उन श्रमण-निर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा, तो उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । फिर भगवान् महावीर के पास से मालकोष्ठक उद्यान से निकल कर, वे मालुकाकच्छवन में, जहाँ सिंह अनगार थे, वहाँ आए और सिंह अनगार से कहा-'हे सिंह ! धर्माचार्य तुम्हें बुलाते हैं ।' तब सिंह अनगार उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् पर्युपासना करने लगे | श्रमण भगवान महावीर कहा-'हे सिंह ! ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए तुम्हें इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न हुई यावत् तुम फूट-फूट कर रोने लगे, तो हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?' 'हाँ, भगवन् ! सत्य है ।' हे सिंह ! मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज द्वारा पराभूत होकर मैं छह मास के अन्दर, यावत् काल नहीं करूंगा । मैं साढे पन्द्रह वर्ष तक गन्धहस्ती के समान जिन रूप में विचरूंगा . हे सिंह ! तुम मेंढिकग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जाओ और वहाँ रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, किन्तु उसके यहाँ मारि नामक वायु को शान्त करने के लिए जो बिजौरापाक है, उसे ले आओ । उसी से मुझे प्रयोजन
श्रमण भगवान् महावीर से आदेश पाकर सिंह अनगार हर्षित सन्तुष्ट यावत् हृदय में