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भगवती-१५/-/-/६५१
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हो ! हे गोशालक ! तुम ऐसा मत करो । तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है । हे गोशालक ! तुम वही गोशालक हो, दूसरे नहीं, तुम्हारी वही प्रकृति है, दूसरी नहीं । सर्वानुभूति अनगार ने जब मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार की बातें कही तब वह एकदम क्रोध से आगबबूला हो उठा
और अपने तपोजन्य तेज से उसने एक ही प्रहार में कूटाघात की तरह सर्वानुभूति अनगार को भस्म कर दिया । सर्वानुभूति अनगार को भस्म करके वह मंखलिपुत्र गोशालक फिर दूसरी बार श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के ऊटपटांग आक्रोश वचनों से तिरस्कृत करने लगा ।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का कोशल जनपदीय में उत्पन्न अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था । वह भी प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था । उसने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत्-'हे गोशालक! तू वही है, तेरी प्रकृति वही है, तू अन्य नहीं है ।' सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी परितापित कर (जला) दिया | मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जले हुए सुनक्षत्र अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप आकर और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । फिर स्वयमेव पंच महाव्रतों का आरोपण किया और सभी श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की । तदनन्तर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म प्राप्त किया । अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाने के बाद फिर तीसरी बार मंखलिपुत्र गोशालक, श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के आक्रोशपूर्ण वचनों से तिरस्कृत करने लगा; इत्यादि पूर्ववत् ।
श्रमण भगवान् महावीर ने, गोशालक से कहा-जो तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि पूर्ववत्, वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या ? मैंने तुझे प्रव्रजित किया, यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत बनाया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार का मिथ्यात्व अपनाया है । गोशालक ! ऐसा मत कर । ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है । यावत्-तू वही है, अन्य नहीं है । तेरी वही प्रकृति है, अन्य नहीं । श्रमण भगवान् महावीर द्वारा इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशालक पुनः एकदम क्रुद्ध हो उठा । उसने तैजस समुद्घात किया । फिर वह सात-आठ कदम पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर का वध करने के लिए उसने अपने शरीर में से तेजोलेश्या निकाली । जिस प्रकार वातोत्कलिका वातमण्डलिका पर्वत, भींत, स्तम्भ या स्तूप से आवारित एवं निवारित होती हुई उन शैल आदि पर अपना थोड़ा-सा भी प्रभाव नहीं दिखाती । इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर का वध करने के लिए गोशालक द्वारा अपने शरीर में से बाहर निकाली हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान् महावीर पर अपना थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी । उसने गमनागमन (ही) किया । फिर उसने प्रदक्षिणा की और ऊपर आकाश में उछल गई । फिर वह वहाँ से नीचे गिरी और वापिस लौट कर उसी मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को बार-बार जलाती हुई अन्त में उसी के शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गई ।
तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक अपनी तेजोलेश्या से स्वयमेव पराभूत हो गया । अतः (क्रुद्ध होकर) श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहने लगा-'आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से ग्रस्त शरीर वाले होकर दाह की पीड़ा से छह