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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
नगरी के बाहर प्राप्तकालक नाम के उद्यान में हुआ । उसमें मैं रोहक के शरीर का परित्याग करके भारद्वाज के शरीर में प्रविष्ट हुआ । वहां अठारह वर्ष तक पाँचवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो छठा परिवृत्त-परिहार हुआ, उसमें मैंने वैशाली नगर के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का परित्याग किया और गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर में प्रवेश किया । वहां मैंने सत्रह वर्ष तक छठे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया । उनमें से जो सातवाँ परिवृत्त-परिहार हुआ, उसमें मैंने इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भकारी की बर्तनों की दूकान में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का परित्याग किया । फिर मैंने समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, शीतसहिष्णु, उष्णसहिष्णु क्षुधासहिष्णु, विविध दंश-मशकादिपरीषह-उपसर्ग-सहनशील, एवं स्थिर संहननवाला जानकर, मंखलिपुत्र गोशालक के उस शरीर में प्रवेश किया । उसमें प्रवेश करके मैं सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूँ।
इसी प्रकार हे आयुष्यमन् काश्यप ! इन एक-सौ तेतीस वर्षों में मेरे ये सात परिवृत्तपरिहार हुए हैं, ऐसा मैंने कहा था । इसलिए आयुष्मन् काश्यप ! तुम ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है।
[६४९] श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-गोशालक ! जैसे कोई चोर हो और वह ग्रामवासी लोगों के द्वारा पराभव पाता हुआ कहीं गड्ढा, गुफा, दुर्ग, निम्न स्थान, पहाड़ या विषम नहीं पा कर अपने आपको एक बड़े ऊन के रोम, से, सण के रोम से, कपास के बने हए रोम से, तिनकों के अग्रभाग से आवत करके बैठ जाए और नहीं ढंका हआ भी स्वयं को ढंका हआ माने. अप्रच्छन्न होते हुए भी प्रच्छन्न माने, लप्त न होने पर भी अपने को लुप्त माने, पलायित न होते हुए भी अपने को पलायित माने, उसी प्रकार तू अन्य न होते हुए भी अपने आपको अन्य बता रहा है । अतः गोशालक ! ऐसा मत कर । यह तेरे लिए उचित नहीं है । तू वही है । तेरी वही छाया है, तू अन्य नहीं है । . [६५०] श्रमण भगवान् महावीर ने जब मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा तब वह तुरन्त अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा । क्रोध से तिलमिला कर वह श्रमण भगवान् महावीर की अनेक प्रकार के ऊटपटांग आक्रोशवचनो से भर्त्सना करने लगा, उद्घर्षणायुक्त वचनों से अपमान करने लगा, अनेक प्रकार की अनर्गल निर्भर्त्सना द्वारा भर्त्सना करने लगा, अनेक प्रकार के दुर्वचनों से उन्हें तिरस्कृत करने लगा | फिर गोशालक बोला-कदाचित् तुम नष्ट हो गए हो, कदाचित् आज तुम विनष्ट हो गए हो, कदाचित् आज तुम भ्रष्ट हो गए हो, कदाचित् तुम नष्ट, विनिष्ट और भ्रष्ट हो चुके हो | आज तुम जीवित नहीं रहोगे । मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है ।
[६५१] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मंखलिपुत्र गोशालक के पास आकार कहने लगे हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवस्वरूप, एवं ज्ञानरूप मान कर उनकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक! तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, मुण्डित किया, भगवान् ने तुम्हें साधना सिखाई, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया; भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत किया; तुम भगवान् के प्रति मिथ्यापन अंगीकार कर रहे