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भगवती-१५/-/-/६४८
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शरप्रमाण काल द्वारा एक महाकल्प होता है । चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है । अनन्त संयूथ से जीव च्यव कर संयूथ-देवभव में उपरितन मानस द्वारा उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्यभोगों का उपभोग करता रहता है । उस देवलोक का आयुष्य-क्षय, देवभव का क्षय
और देवस्थिति का क्षय होने पर तुरन्त च्यवकर प्रथम संज्ञीगर्भजीव में उत्पन्न होता है । फिर वह वहाँ से अन्तररहित मर कर मध्यम मानस द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता है । वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर दूसरी बार फिर संज्ञीगर्भ में जन्म लेता है । वहाँ से तुरन्त मर कर अधस्तन मानस आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है । फिर वह वहाँ से मर कर उपरितन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ वह दिव्यभोग भोग कर यावत् चतुर्थ संज्ञीगर्भ में जन्म लेता है । वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है । वहाँ वह दिव्यभोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर पांचवें संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है । वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ-देव में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करके यावत् च्यव कर छठे संज्ञीगर्भ जीव में जन्म लेता है ।
वह वहाँ से मर कर तुरन्त ब्रह्मलोक नामक कल्प में देवरूप में उत्पन्न होता है, वह पूर्वपश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । यावत्-उसमें पांच अवतंसक विमान कहे गए हैं । यथा-अशोकावतंसक, यावत् वे प्रतिरूप हैं । इन्हीं अवतंसकों में वह देवरूप में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर सातवें संज्ञीगर्भ जीव में उत्पन्न होता है । वहाँ नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिवस यावत् व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु तथा कुण्डल के समान कुंचित केश वाला, कान के आभूषणों से जिसके कपोलस्थल चमक रहे थे, ऐसे देवकुमारसम कान्ति वाले बालक को जन्म दिया । हे काश्यप ! वही मैं हूँ । कुमारावस्थामें ली हुई प्रव्रज्या से, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्यवास से जब मैं अविद्धकर्म था, तभी मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की बुद्धि प्राप्त हुई । फिर मैंने सात परिवृत्त-परिहार में संचार किया, यथा-ऐणेयक, मल्लरामक, मण्डिक, रौह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुनक और मंखलिपुत्र गोशालक के (शरीर में प्रवेश किया)।
इनमें से जो प्रथम परिवृत्त-परिहार हआ, वह राजगृह नगर के बाहर मंडिककुक्षि नामक उद्यान में, कुण्डियायण गोत्रीय उदायी के शरीर का त्याग करके ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया । वहां मैंने बाईस वर्ष तक प्रथम परिवृत्त-परिहार किया । इनमें से जो द्वितीय परिवृत्त-परिहार हुआ, वह उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में मैंने ऐणेयक के शरीर का त्याग किया
और मल्लरामक के शरीर में प्रवेश किया । वहां मैंने इक्कीस वर्ष तक दूसरे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया । इनमें से जो तृतीय परिवृत्त-परिहार हुआ, वह चम्पानगरी के बाहर अंगमंदिर नामक उद्यान में मल्लरामक के शरीर का परित्याग किया । फिर मैंने मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया । वहां मैंने बीस वर्ष तक तृतीय परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया । इनमें से जो चतुर्थ परिवृत्त-परिहार हुआ, वह वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन नामक उद्यान के मण्डिक के शरीर का मैंने त्याग किया और रोहक के शरीर में प्रवेश किया । वहां मैंने उन्नीस वर्ष तक चतुर्थ परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया । उनमें से जो पंचम परिवृत्त-परिहार हुआ, वह आलभिका